अंधेरे से शुरुआत उस छोटे से गाँव की सुबह हमेशा धुएँ और खामोशी से शुरू होती थी। सूरज निकलता जरूर था , लेकिन उजाला कम और थकान ज़्यादा लाता था। मिट्टी के कच्चे घर , टूटी हुई सड़कें , और हर चेहरे पर एक ही सवाल—“आज कैसे कटेगा ?” उसी गाँव के एक कोने में रामू रहता था। उम्र मुश्किल से सोलह साल , लेकिन आँखों में बचपन से ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ थीं। उसके हाथों में छाले थे , सपनों में नहीं। रामू का परिवार बहुत बड़ा नहीं था , पर हालात इतने भारी थे कि साँस लेना भी मुश्किल लगता था। पिता खेतों में मज़दूरी करते थे , माँ लोगों के घर बर्तन माँजती थी , और रामू पढ़ाई के बाद एक छोटी सी दुकान पर काम करता था। किताबें उसके बैग में कम और चिंता ज़्यादा रहती थी। स्कूल में वह हमेशा चुप रहता , न सवाल पूछता , न जवाब देता। शिक्षक उसे साधारण समझते थे , दोस्त उसे नज़रअंदाज़ करते थे , और वह खुद को। रामू के भीतर कहीं न कहीं एक आग थी , लेकिन हालातों की राख ने उसे ढक रखा था। वह रोज़ स्कूल की खिड़की से बाहर देखता और सोचता कि क्या ज़िंदगी सिर्फ़ इतना ही है—सुबह उठो , काम करो , थक जाओ , और फिर सो जाओ। सपनों के लिए...
अंधेरे से शुरुआत उस छोटे से गाँव की सुबह हमेशा धुएँ और खामोशी से शुरू होती थी। सूरज निकलता जरूर था , लेकिन उजाला कम और थकान ज़्यादा लाता था। मिट्टी के कच्चे घर , टूटी हुई सड़कें , और हर चेहरे पर एक ही सवाल—“आज कैसे कटेगा ?” उसी गाँव के एक कोने में रामू रहता था। उम्र मुश्किल से सोलह साल , लेकिन आँखों में बचपन से ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ थीं। उसके हाथों में छाले थे , सपनों में नहीं। रामू का परिवार बहुत बड़ा नहीं था , पर हालात इतने भारी थे कि साँस लेना भी मुश्किल लगता था। पिता खेतों में मज़दूरी करते थे , माँ लोगों के घर बर्तन माँजती थी , और रामू पढ़ाई के बाद एक छोटी सी दुकान पर काम करता था। किताबें उसके बैग में कम और चिंता ज़्यादा रहती थी। स्कूल में वह हमेशा चुप रहता , न सवाल पूछता , न जवाब देता। शिक्षक उसे साधारण समझते थे , दोस्त उसे नज़रअंदाज़ करते थे , और वह खुद को। रामू के भीतर कहीं न कहीं एक आग थी , लेकिन हालातों की राख ने उसे ढक रखा था। वह रोज़ स्कूल की खिड़की से बाहर देखता और सोचता कि क्या ज़िंदगी सिर्फ़ इतना ही है—सुबह उठो , काम करो , थक जाओ , और फिर सो जाओ। सपनों के लिए...