अंधेरे से शुरुआत
उस छोटे से गाँव की सुबह
हमेशा धुएँ और खामोशी से शुरू होती थी। सूरज निकलता जरूर था, लेकिन उजाला कम और थकान ज़्यादा लाता था। मिट्टी के कच्चे घर, टूटी हुई सड़कें, और हर चेहरे पर एक ही सवाल—“आज कैसे कटेगा?” उसी गाँव के एक कोने में रामू रहता था। उम्र मुश्किल से सोलह साल, लेकिन आँखों में बचपन से ज़्यादा ज़िम्मेदारियाँ थीं। उसके हाथों में छाले थे, सपनों में नहीं।
रामू का परिवार बहुत बड़ा
नहीं था, पर हालात इतने भारी थे कि साँस लेना भी मुश्किल लगता था।
पिता खेतों में मज़दूरी करते थे, माँ लोगों के घर बर्तन
माँजती थी, और रामू पढ़ाई के बाद एक छोटी सी दुकान पर काम करता था।
किताबें उसके बैग में कम और चिंता ज़्यादा रहती थी। स्कूल में वह हमेशा चुप रहता, न सवाल पूछता, न जवाब देता। शिक्षक उसे साधारण समझते थे, दोस्त उसे नज़रअंदाज़ करते थे, और वह खुद को।
रामू के भीतर कहीं न कहीं
एक आग थी, लेकिन हालातों की राख ने उसे ढक रखा था। वह रोज़ स्कूल की
खिड़की से बाहर देखता और सोचता कि क्या ज़िंदगी सिर्फ़ इतना ही है—सुबह उठो, काम करो, थक जाओ, और फिर सो जाओ। सपनों के
लिए उसके पास समय नहीं था,
और समय के लिए उसके पास हिम्मत नहीं थी।
एक दिन स्कूल में शिक्षक ने
निबंध लिखने को कहा—“मेरा भविष्य।” पूरी कक्षा में कलम चलने लगी, लेकिन रामू की कॉपी खाली रही। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या लिखे। भविष्य? उसे तो आज का भी भरोसा नहीं था। घंटी बज गई, कॉपियाँ जमा हो
गईं, और रामू की खाली कॉपी शिक्षक के हाथ में पहुँची। शिक्षक ने
उसे देखा, फिर रामू को। उस नज़र में डाँट नहीं थी, बल्कि एक सवाल था।
स्कूल के बाद शिक्षक ने
रामू को रोका। उन्होंने पूछा, “तुमने कुछ लिखा क्यों नहीं?” रामू चुप रहा। बहुत देर बाद बोला, “सर, मेरे पास भविष्य सोचने का समय नहीं है।” यह सुनकर शिक्षक कुछ पल खामोश रहे।
फिर बोले, “जिसके पास भविष्य सोचने का समय नहीं होता, वही सबसे ज़्यादा ज़रूरतमंद होता है उसे सोचने की।”
यह बात रामू के दिल में उतर
गई, लेकिन हालात नहीं बदले। अगले दिन फिर वही दिनचर्या, वही थकान, वही बेबसी। दुकान पर काम करते हुए वह ग्राहकों को देखता—कुछ
अच्छे कपड़े पहने, कुछ महंगे फोन पर बात करते हुए। वह सोचता, “क्या मैं कभी ऐसा बन पाऊँगा?” और फिर खुद ही जवाब
देता—“नहीं।”
गाँव में एक पुरानी
लाइब्रेरी थी, जहाँ शायद ही कोई जाता था। एक शाम बारिश से बचने के लिए
रामू वहाँ चला गया। अंदर धूल जमी किताबें थीं, टूटी कुर्सियाँ थीं, और सन्नाटा था। वह यूँ ही किताबें पलट रहा था कि एक किताब पर नज़र
पड़ी—“संघर्ष से सफलता तक।” बिना सोचे उसने किताब खोल ली।
उस किताब में किसी अमीर
आदमी की कहानी नहीं थी, बल्कि एक साधारण इंसान की कहानी थी, जो हालातों से हारा नहीं था। हर पन्ने पर एक ही बात थी—“परिस्थितियाँ आपको
नहीं रोकतीं, आपकी सोच रोकती है।” रामू पहली बार किसी किताब में खुद को
देख रहा था। वह देर तक पढ़ता रहा, बारिश कब रुकी उसे पता ही
नहीं चला।
उस दिन के बाद रामू का एक
नया रिश्ता बन गया—किताबों से। वह रोज़ थोड़ा समय निकालकर लाइब्रेरी जाने लगा। कभी
आधा घंटा, कभी पंद्रह मिनट। उसके दिन वही थे, लेकिन सोच बदलने लगी थी। वह अब सवाल पूछने लगा था—खुद से।
एक दिन माँ बीमार पड़ गई।
काम रुक गया, पैसे खत्म होने लगे। रामू ने स्कूल छोड़ने का फैसला कर
लिया। जब वह यह बात शिक्षक को बताने गया, तो शिक्षक ने कहा, “अगर पढ़ाई छोड़ दी, तो हालात तुम्हें हमेशा चलाएँगे। अगर पढ़ाई नहीं छोड़ी, तो एक दिन तुम हालात चलाओगे।”
यह सुनकर रामू रात भर सो
नहीं पाया। उसके सामने दो रास्ते थे—एक आसान, जो उसे आज बचा लेता; दूसरा मुश्किल, जो उसे कल बदल सकता था। उसने पहली बार महसूस किया कि
ज़िंदगी में सबसे कठिन फैसला वही होता है, जो सही होता है।
अगली सुबह उसने तय किया कि
वह स्कूल नहीं छोड़ेगा। वह दिन में काम करेगा, रात में पढ़ेगा। थकान होगी, नींद कम होगी, लेकिन पछतावा नहीं होगा। शुरुआत बहुत कठिन थी। कई बार किताब
हाथ से गिर जाती, आँखें बंद हो जातीं, लेकिन वह खुद से कहता—“अगर
आज रुक गया, तो हमेशा रुक जाऊँगा।”
धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास
बढ़ने लगा। जो लड़का कभी चुप रहता था, वह अब सवाल पूछने लगा। जो
खुद को कमजोर समझता था, वह अपनी ताकत पहचानने लगा। हालात वही थे, लेकिन नजरिया बदल चुका था।
रामू को अभी पता नहीं था कि
यह सिर्फ़ शुरुआत है। आगे ज़िंदगी उससे और भी इम्तिहान लेने वाली है—ऐसे इम्तिहान
जो उसकी सोच, धैर्य और आत्मविश्वास को तोड़ने की पूरी कोशिश करेंगे।
लेकिन अब वह वही रामू नहीं था जो खिड़की से बाहर सपने देखता था। अब वह सपनों को
पकड़ने की हिम्मत सीख रहा था।
क्योंकि असली बदलाव तब शुरू
होता है, जब इंसान हालातों को नहीं, खुद को बदलने का फैसला करता है।
संघर्ष की आग
रामू की ज़िंदगी अब दो
हिस्सों में बँट चुकी थी—दिन और रात। दिन में वह दुकान पर काम करता, बोरे उठाता, ग्राहकों की डाँट सुनता, और मालिक की कड़वी बातों को
चुपचाप सहता। रात में वही हाथ किताबें पकड़ते, वही आँखें सपने देखतीं, और वही दिमाग़ सवालों से लड़ता। शरीर थक जाता था, लेकिन मन में एक अजीब सी ज़िद जन्म ले चुकी थी।
शुरुआत में पढ़ाई आसान नहीं
थी। कई बार शब्द समझ में नहीं आते, गणित के सवाल सिर के ऊपर से
निकल जाते। वह किताब बंद कर देता और सोचता—“शायद मैं इसके लायक नहीं हूँ।” लेकिन
फिर उसे लाइब्रेरी की वह किताब याद आती—“परिस्थितियाँ आपको नहीं रोकतीं, आपकी सोच रोकती है।” वह फिर किताब खोलता, फिर कोशिश करता।
गाँव के लोग रामू को देखकर
हँसते थे। कोई कहता, “इतनी मेहनत करके क्या कर लेगा?” कोई कहता, “गरीब का बेटा गरीब ही रहता है।” ये बातें उसे चुभती थीं, लेकिन अब वह जवाब शब्दों से नहीं, मेहनत से देना चाहता था।
उसने सीख लिया था कि हर आवाज़ का जवाब देना ज़रूरी नहीं होता।
माँ की तबीयत धीरे-धीरे
सुधर रही थी, लेकिन खर्च बढ़ते जा रहे थे। कई बार रामू के पास किताबें
खरीदने तक के पैसे नहीं होते। ऐसे में वह पुराने नोट्स माँग लेता, टूटी किताबें जोड़कर पढ़ता, और जो नहीं समझ आता, उसे बार-बार पढ़ता। उसकी दुनिया छोटी थी, लेकिन इरादे बड़े होते जा
रहे थे।
स्कूल में एक दिन विज्ञान
के शिक्षक ने एक सवाल पूछा। पूरी कक्षा चुप थी। रामू ने हिम्मत करके हाथ उठाया और
जवाब दिया। जवाब पूरी तरह सही नहीं था, लेकिन कोशिश सच्ची थी।
शिक्षक मुस्कुराए और बोले,
“गलत जवाब से मत डरो, कोशिश से डरो मत।” उस दिन पहली बार रामू को लगा कि वह भी किसी गिनती में आता
है।
धीरे-धीरे उसके नंबर बेहतर
होने लगे। जो शिक्षक उसे नज़रअंदाज़ करते थे, अब उसकी ओर देखने लगे। कुछ
दोस्त जो पहले मज़ाक उड़ाते थे, अब उससे सवाल पूछने लगे। यह
बदलाव छोटा था, लेकिन रामू के लिए बहुत बड़ा था। उसे एहसास होने लगा कि
मेहनत कभी शोर नहीं मचाती,
लेकिन असर ज़रूर छोड़ती है।
एक दिन स्कूल में
प्रतियोगिता की घोषणा हुई—ज़िले स्तर की परीक्षा। गाँव से बहुत कम बच्चे उसमें भाग
लेते थे। रामू का मन डोल रहा था। उसे डर था कि अगर वह असफल हुआ तो सब हँसेंगे।
लेकिन फिर उसने खुद से पूछा—“अगर कोशिश ही नहीं की, तो हार किस बात
की?” उसने फॉर्म भर दिया।
तैयारी आसान नहीं थी। दिन
छोटा पड़ने लगा, रातें लंबी। कई बार नींद में भी सवाल घूमते रहते। कभी-कभी
वह खुद पर गुस्सा होता—“मैं ये क्यों कर रहा हूँ?” लेकिन अगले ही
पल जवाब भी मिल जाता—“क्योंकि मैं अपनी ज़िंदगी बदलना चाहता हूँ।”
परीक्षा का दिन आया। शहर
जाना था—पहली बार। बड़ी इमारतें, भीड़, शोर—सब कुछ नया था। रामू का दिल तेज़ धड़क रहा था। उसके पास न अच्छे कपड़े थे, न महंगे पेन। लेकिन उसके पास मेहनत थी, और उम्मीद थी। जब उसने
प्रश्नपत्र देखा, तो कुछ सवाल आसान थे, कुछ कठिन। उसने गहरी साँस
ली और लिखना शुरू किया।
परीक्षा के बाद उसे हल्का
महसूस हुआ। परिणाम चाहे जो हो, उसने अपनी पूरी कोशिश की
थी। यह एहसास ही उसके लिए जीत था। दिन बीतते गए, इंतज़ार लंबा
होता गया। कई बार मन डर से भर जाता—“अगर फेल हो गया तो?”
परिणाम आया। स्कूल में
नामों की सूची लगी। रामू ने अपना नाम ढूँढा। एक बार नहीं दिखा। दिल बैठ गया। दूसरी
बार देखा—वहाँ था। चयनित छात्रों में। उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। आँखों में
आँसू थे, लेकिन इस बार बेबसी के नहीं, भरोसे के।
घर जाकर उसने माँ को बताया।
माँ ने कुछ नहीं कहा, बस उसके सिर पर हाथ रख दिया। उस स्पर्श में सालों की थकान, दुआएँ और उम्मीदें थीं। उस दिन रामू ने समझा कि उसकी मेहनत सिर्फ़ उसकी नहीं
थी, पूरे परिवार की थी।
लेकिन यह सफलता अंत नहीं
थी। यह तो सिर्फ़ एक दरवाज़ा था, जिसके पीछे और भी बड़ी
चुनौतियाँ थीं। अब उससे उम्मीदें बढ़ गई थीं—लोगों की भी, और उसकी अपनी भी। आगे का रास्ता आसान नहीं था, लेकिन अब वह
डरता नहीं था।
क्योंकि उसने सीख लिया था
कि संघर्ष वही करता है जो आगे बढ़ना चाहता है, और जो रुक जाता है, वह पहले ही हार चुका होता है।
रामू अब जानता था—असली
लड़ाई बाहर की नहीं, अंदर की होती है।
और वह लड़ाई वह जीतना सीख चुका था।
फैसला जो सब बदल देता है
रामू के चयन की खबर
धीरे-धीरे पूरे गाँव में फैल गई। वही लोग जो कभी उसे नज़रअंदाज़ करते थे, अब उसके बारे में बातें करने लगे। कुछ तारीफ कर रहे थे, कुछ हैरान थे, और कुछ अब भी शक में थे। लेकिन इन सब से ज़्यादा बड़ा बदलाव
रामू के अंदर हो चुका था। अब वह खुद को कमजोर नहीं मानता था।
ज़िले की प्रतियोगिता में
चयन होने का मतलब था—शहर में आगे की पढ़ाई का मौका। यह मौका सुनने में जितना अच्छा
लग रहा था, हकीकत में उतना ही डरावना था। शहर जाना, नए लोग, नया माहौल, और सबसे बड़ा सवाल—पैसे
कहाँ से आएँगे?
रामू के पिता ने पहली बार
उससे खुलकर बात की। उन्होंने कहा, “बेटा, हालात हमारे सामने हैं। मैं चाहता हूँ कि तू आगे बढ़े, लेकिन सच यह है कि हम ज़्यादा मदद नहीं कर पाएँगे।” यह कहते हुए उनकी आवाज़
भारी हो गई। रामू ने पहली बार अपने पिता की आँखों में बेबसी देखी। उस दिन उसे समझ
आया कि मजबूत दिखने वाले लोग भी अंदर से टूट सकते हैं।
कई रातों तक रामू सो नहीं
पाया। एक तरफ़ सपना था, दूसरी तरफ़ परिवार की ज़रूरतें। अगर वह शहर चला गया तो घर
में कमाने वाला एक हाथ कम हो जाएगा। अगर वह रुक गया, तो शायद उसकी
ज़िंदगी यहीं ठहर जाएगी। यह फैसला आसान नहीं था।
स्कूल के वही शिक्षक, जिन्होंने उसकी खाली कॉपी देखी थी, इस बार उसके साथ देर तक
बैठे। उन्होंने कहा, “जिंदगी में कुछ मौके दोबारा नहीं आते। डर होगा, नुकसान भी होगा, लेकिन अगर आज पीछे हट गए, तो पूरी उम्र
यही सोचते रह जाओगे कि क्या हो सकता था।” यह बात रामू के दिल में गहरे उतर गई।
आख़िरकार उसने फैसला
किया—वह जाएगा। शहर जाएगा,
पढ़ेगा, और मेहनत करेगा। उसने अपने
पिता से कहा, “अगर मैं नहीं गया, तो हम हमेशा ऐसे ही रहेंगे।
अगर गया, तो शायद सब कुछ बदल सके।” पिता ने चुपचाप सिर हिला दिया। यह
उनकी सहमति थी, उनके डर के साथ।
शहर रामू के लिए एक अलग ही
दुनिया था। ऊँची इमारतें,
तेज़ रफ्तार लोग, और हर किसी के चेहरे पर
जल्दी। शुरुआत में उसे घबराहट होती थी। हॉस्टल का कमरा छोटा था, खाना साधारण, और अकेलापन बहुत बड़ा। कई बार उसे गाँव, माँ की आवाज़ और घर की मिट्टी याद आती।
पढ़ाई यहाँ और भी कठिन थी।
प्रतियोगिता कड़ी थी, बच्चे तेज़ थे, और रामू खुद को फिर से सबसे
पीछे महसूस करने लगा। एक बार फिर वही पुराना डर—“क्या मैं यहाँ टिक पाऊँगा?” लेकिन इस बार उसके पास अनुभव था। उसने खुद से कहा, “अगर गाँव में कर सकता था, तो यहाँ भी कर सकता हूँ।”
पैसों की समस्या बनी रही।
उसने पढ़ाई के साथ-साथ छोटे काम करने शुरू किए—कभी लाइब्रेरी में, कभी नोट्स लिखकर। दिन फिर से लंबे और रातें छोटी हो गईं। कई बार थककर वह
सोचता—“क्या यह सब ज़रूरी है?” और फिर खुद को याद
दिलाता—“हाँ, क्योंकि पीछे कोई रास्ता नहीं है।”
एक दिन परीक्षा में उसके
अंक उम्मीद से कम आए। वह टूट सा गया। उसे लगा कि सारी मेहनत बेकार जा रही है। उसी
रात उसने अपने गाँव फोन किया। माँ ने कहा, “बेटा, खेत में बीज बोने के बाद रोज़ फल नहीं दिखता, लेकिन इसका
मतलब यह नहीं कि फसल नहीं आएगी।” यह बात उसके दिल को संभाल गई।
धीरे-धीरे वह फिर संभला।
उसने अपनी कमज़ोरियों पर काम किया, मदद माँगना सीखा, और खुद को दूसरों से नहीं, खुद से तुलना करना शुरू
किया। यह सीख आसान नहीं थी,
लेकिन ज़रूरी थी।
समय बीतता गया। साल का अंत
आया। अंतिम परीक्षा के बाद जब परिणाम आया, तो रामू ने पहली बार खुद पर
गर्व महसूस किया। वह सबसे ऊपर नहीं था, लेकिन वह टिक गया था। और
टिकना ही उसकी सबसे बड़ी जीत थी।
उस दिन उसने समझा कि
ज़िंदगी में हर जीत चमकदार नहीं होती। कुछ जीतें शांत होती हैं, लेकिन बहुत गहरी होती हैं। वे इंसान को बदल देती हैं।
रामू जानता था कि उसकी राह
अभी लंबी है। आगे और संघर्ष हैं, और भी फैसले लेने होंगे।
लेकिन अब वह डर से नहीं भागता था। अब वह जानता था—डर के साथ भी आगे बढ़ा जा सकता
है।
क्योंकि ज़िंदगी बदलने वाले फैसले कभी आरामदेह नहीं होते,
लेकिन वही फैसले इंसान को वो बना देते हैं, जो वह बन सकता है।
टूटने के बाद खड़े होने की
कला
समय के साथ शहर अब नया नहीं
रहा था, लेकिन आसान भी नहीं बना था। रामू की ज़िंदगी एक तय रफ्तार
में चल रही थी—पढ़ाई, काम,
और खुद से लड़ाई। बाहर से देखने पर सब ठीक लगता था, लेकिन अंदर कहीं एक खालीपन बढ़ रहा था। वह लगातार आगे बढ़ रहा था, फिर भी उसे लग रहा था कि वह पीछे छूट रहा है।
दूसरे छात्र उससे आगे
निकलने लगे थे। कोई स्कॉलरशिप ले आया, कोई बड़ी प्रतियोगिता जीत
गया। रामू खुश होता था उनके लिए, लेकिन रात को अकेले में
सवाल उठते—“क्या मैं काफी अच्छा हूँ?” यह सवाल सबसे खतरनाक होता
है, क्योंकि इसका जवाब इंसान खुद को काटकर देता है।
एक सेमेस्टर में वह एक अहम
विषय में असफल हो गया। यह उसकी अब तक की सबसे बड़ी असफलता थी। रिपोर्ट कार्ड हाथ
में था, और हाथ काँप रहे थे। उसे लगा जैसे सारी मेहनत एक पल में
बेकार हो गई हो। वह कई दिनों तक क्लास नहीं गया। काम पर भी मन नहीं लगता था। पहली
बार उसे लगा कि शायद वह खुद से ज़्यादा उम्मीद कर बैठा है।
उसने अपने शिक्षक से बात
करने की हिम्मत जुटाई। शिक्षक ने रिपोर्ट देखी और कहा, “असफल होना बुरा नहीं है, लेकिन वहीं रुक जाना बुरा
है।” फिर उन्होंने रामू से पूछा, “क्या तुम सीखना छोड़ दोगे
सिर्फ इसलिए कि एक बार गिर गए?” यह सवाल किसी जवाब का
इंतज़ार नहीं कर रहा था।
रामू को एहसास हुआ कि वह
असफलता से नहीं, शर्म से भाग रहा था। उसे डर था कि लोग क्या कहेंगे, परिवार क्या सोचेगा। उसी शाम उसने खुद से वादा किया कि वह छुपेगा नहीं। अगले
दिन वह फिर क्लास गया, फिर से सवाल पूछे, और उसी विषय को सबसे पहले
उठाया जिसमें वह फेल हुआ था।
काम और पढ़ाई का बोझ बढ़ता
गया। एक दिन अत्यधिक थकान के कारण वह बीमार पड़ गया। कई दिन बिस्तर पर ही बीते।
उसी दौरान उसे एहसास हुआ कि वह खुद को मशीन की तरह चला रहा था—बिना रुके, बिना सुने। उसने पहली बार सीखा कि मेहनत के साथ समझदारी भी ज़रूरी होती है।
धीरे-धीरे उसने अपनी
दिनचर्या बदली। पढ़ाई के समय को बेहतर तरीके से बाँटा, छोटे लक्ष्य बनाए, और खुद को थोड़ा समय देना शुरू किया। यह बदलाव छोटा था, लेकिन असर बड़ा था। अब वह थकता तो था, लेकिन टूटता नहीं था।
एक दिन लाइब्रेरी में वही
पुरानी किताब उसे फिर मिली—“संघर्ष से सफलता तक।” उसने कुछ पन्ने दोबारा पढ़े। एक
लाइन पर उसकी नज़र ठहर गई—“जो खुद पर भरोसा खो देता है, वह सब कुछ खो देता है।” यह लाइन जैसे उसके लिए ही लिखी गई थी।
उस सेमेस्टर के अंत में
उसने वही विषय अच्छे अंकों से पास किया। यह सफलता बड़ी नहीं थी, लेकिन उसके लिए बहुत खास थी। क्योंकि यह जीत दूसरों से नहीं, खुद से थी।
उसी समय गाँव से खबर आई कि
उसके पिता बीमार हैं। रामू तुरंत गाँव पहुँचा। पिता को बिस्तर पर कमजोर देखना उसके
लिए बहुत कठिन था। पिता ने उसका हाथ पकड़कर कहा, “जो भी कर रहा
है, छोड़ना मत।” उन शब्दों में आदेश नहीं था, भरोसा था।
गाँव लौटकर रामू ने महसूस
किया कि वह अब पहले जैसा नहीं रहा। उसकी सोच, उसकी नज़र, और उसका आत्मविश्वास—सब बदल चुका था। उसने समझा कि ज़िंदगी सिर्फ आगे बढ़ने का
नाम नहीं है, बल्कि गिरकर फिर उठने का भी नाम है।
वह शहर वापस लौटा, लेकिन इस बार मन में डर नहीं था। अब वह जान चुका था कि असफलता अंत नहीं होती, बल्कि एक शिक्षक होती है। और जो सीख जाता है, वही आगे बढ़ता
है।
रामू अब खुद से भागता नहीं
था।
वह खुद को समझने लगा था।
क्योंकि जो इंसान खुद को संभालना सीख लेता है,
उसे हालात कभी पूरी तरह
गिरा नहीं सकते।
ही बनना, जो कभी सपना था
समय अब तेज़ी से बदल रहा था, और रामू भी। वह अब वही डरपोक लड़का नहीं था जो कभी खाली कॉपी लेकर बैठा रहता
था। उसके कदमों में अभी भी थकान थी, लेकिन दिशा साफ़ थी। पढ़ाई
अब सिर्फ़ ज़िम्मेदारी नहीं रही थी, बल्कि एक मक़सद बन चुकी थी।
अंतिम वर्ष की पढ़ाई शुरू
हुई। यह साल निर्णायक था। हर परीक्षा, हर प्रोजेक्ट, हर निर्णय भविष्य की नींव रख रहा था। रामू जानता था कि यह मौका आख़िरी नहीं है, लेकिन बहुत अहम है। उसने खुद से एक वादा किया—इस बार वह सिर्फ़ पास होने के
लिए नहीं, बल्कि सीखने के लिए पढ़ेगा।
उसी साल एक बड़ी संस्था में
इंटर्नशिप का मौका मिला। चयन प्रक्रिया कठिन थी। कई प्रतिभाशाली छात्र थे, अच्छे बोलने वाले, आत्मविश्वास से भरे हुए। रामू को लगा कि वह फिर पीछे है।
लेकिन जब इंटरव्यू में उससे पूछा गया कि उसने सबसे ज़्यादा क्या सीखा है, तो उसने बिना सोचे कहा—“मैंने गिरकर उठना सीखा है।” कमरे में कुछ पल की चुप्पी
छा गई। यही उसकी सच्चाई थी।
कुछ दिनों बाद जब चयन सूची
आई, रामू का नाम उसमें था। यह उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी
उपलब्धियों में से एक थी। वह देर तक उस काग़ज़ को देखता रहा। उसे अपने गाँव की
मिट्टी, माँ के हाथ, पिता की चुप्पी—सब याद आ
गया।
इंटर्नशिप के दौरान उसने
सिर्फ़ काम नहीं सीखा, उसने इंसानों को समझा। उसने देखा कि हर सफल व्यक्ति के पीछे
एक असफल कहानी होती है, जिसे कोई नहीं देखता। उसे एहसास हुआ कि सफलता चमकने से पहले
बहुत जलाती है।
पढ़ाई पूरी होने के बाद उसे
नौकरी का प्रस्ताव मिला। वह बड़ी नहीं थी, लेकिन ईमानदार थी। पहली
सैलरी जब उसके हाथ में आई,
तो उसने सबसे पहले गाँव फोन किया। माँ रो पड़ी। पिता ने बस
इतना कहा—“मेहनत रंग लाई।”
रामू गाँव लौटा। इस बार वह
खाली हाथ नहीं था—न पैसों से, न अनुभव से, और न आत्मविश्वास से। उसने उसी पुरानी लाइब्रेरी को फिर देखा, जहाँ से सब शुरू हुआ था। धूल अब भी थी, लेकिन उम्मीद भी थी। उसने
तय किया कि वह उस लाइब्रेरी को फिर से ज़िंदा करेगा।
कुछ समय बाद गाँव के बच्चे
वहाँ आने लगे। रामू उन्हें पढ़ाता नहीं था, वह उन्हें सुनता था। वह
उन्हें बताता था कि सपने देखना गलत नहीं है, और हालात कभी आख़िरी सच
नहीं होते।
लोग अब उसे उसके नाम से
नहीं, उसकी कहानी से पहचानते थे। लेकिन रामू को इससे फर्क नहीं
पड़ता था। उसके लिए सबसे बड़ी जीत यह थी कि उसने खुद को हारने नहीं दिया।
उसने समझ लिया था कि
ज़िंदगी बदलने के लिए चमत्कार नहीं चाहिए।
एक फैसला काफी होता है—हार न मानने का।
रामू अब भी वही साधारण
इंसान था।
लेकिन उसकी सोच असाधारण हो चुकी थी।
और यही फर्क होता है
भीड़ का हिस्सा बनने और अपनी राह बनाने में।
कहानी की अंतिम सीख
ज़िंदगी आपको कभी तैयार
हालात नहीं देती।
वह आपको चुनौतियाँ देती है—ताकि आप खुद को बना सकें।
अगर आप आज थके हुए हैं, उलझे हुए हैं, या खुद पर शक कर रहे हैं—
तो याद रखिए,
यही वो जगह है जहाँ से बदलाव शुरू होता है।
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