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अंधकार के बाद उजाला

सिया एक छोटे शहर में जन्मी थी , जहाँ हर घर में सीमित संसाधन और छोटे सपने ही रहते थे। उसके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे , जो अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते और अक्सर थके हुए घर लौटते , जबकि माँ घर संभालती और छोटी-छोटी खुशियों को जुटाने की कोशिश करतीं। बचपन से ही सिया ने गरीबी और संघर्ष को बहुत करीब से महसूस किया था। स्कूल में उसके पास सही किताबें या नए कपड़े नहीं होते थे , और अक्सर बच्चे उसका मजाक उड़ाते थे , लेकिन सिया हमेशा चुप रहती , अपने दिल में छोटे-छोटे सपनों को पनपाती। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी , जो उसके भीतर छुपी उम्मीद और आत्मविश्वास को दर्शाती थी। समय बीतता गया और सिया के पिता की तबीयत अचानक बिगड़ गई। परिवार पर आर्थिक दबाव बढ़ गया , और सिया को समझना पड़ा कि अब वह केवल अपनी पढ़ाई तक ही सीमित नहीं रह सकती , बल्कि घर के लिए भी जिम्मेदारियों को उठाना होगा। कई बार उसने स्कूल छोड़कर काम करने का सोचा , लेकिन माँ ने उसकी किताबों को गले लगाकर कहा , “ सिया , अगर तुम पढ़ाई छोड़ दोगी तो हमारे सपने भी अधूरे रह जाएंगे।” उस दिन सिया ने पहली बार अपने भीतर एक अडिग संकल्प महसूस किया। ...

सोनू का मन पसंद दाल तड़का

सोनू दस साल का नटखट बच्चा था। उसका चेहरा गोल-मटोल और आँखें चमकदार थीं। उसे गाँव के सारे बच्चे जानते थे क्योंकि वह न केवल मज़ाकिया था, बल्कि बहुत ही चतुर और जिज्ञासु भी था। लेकिन सोनू की सबसे बड़ी पहचान थी—दाल तड़का की दीवानगी।

सोनू के घर में हमेशा दाल तड़का बनती। माँ राधा गाँव की सबसे अच्छी रसोइया थीं। उनके हाथों का तड़का ऐसा होता कि दाल में खुशबू और स्वाद का जादू दोनों झलकते। सोनू ने कई बार सोचा था कि अगर वह बड़ा होकर भी दाल तड़का बनाए, तो लोग उसकी तारीफ़ करेंगे।

सोनू का दिन हमेशा एक ही सवाल से शुरू होता:
“माँ, आज दाल तड़का है ना?”
राधा मुस्कुराती और कहती,
“हाँ बेटा, तुम्हारी पसंदीदा दाल तड़का आज बन रही है।”

सोनू की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। उसका पेट भले ही पहले ही न भूखा हो, लेकिन दाल तड़का देखकर वह तुरंत अपनी प्लेट लेने दौड़ पड़ता।

एक दिन स्कूल से लौटते समय सोनू ने देखा कि गाँव के बाहर नया बाजार खुला है। रंग-बिरंगी दुकानों में चॉकलेट, आइसक्रीम, चिप्स और मसालों का भंडार था। सोनू की नजर एक छोटे से मसाले की दुकान पर पड़ी, जहाँ लिखा था:

“स्वाद बढ़ाएँ, दाल को सुपर बनाएँ!”

सोनू की जिज्ञासा चरम पर थी। उसने तुरंत अपने कदम उस दुकान की ओर बढ़ाए। वहाँ का दुकानदार बड़ा हँसमुख व्यक्ति था, जिसके हाथ में चमकदार मसाले की डिब्बियाँ थीं।
“बेटा, ये मसाले तुम्हारी दाल को सुपर स्वाद देंगे,” दुकानदार ने कहा।

सोनू ने उत्साहित होकर कहा,
“माँ के हाथों की दाल तो बहुत स्वादिष्ट होती है, लेकिन मैं इसे आज नया स्वाद देना चाहता हूँ!”

सोनू ने कुछ मसाले खरीदे और घर की ओर दौड़ पड़ा। माँ राधा ने उसे देखा और मुस्कुराते हुए कहा,
“ठीक है बेटा, आज कोशिश करते हैं। लेकिन याद रखना, असली स्वाद प्यार में होता है, मसाले में नहीं।”

सोनू खुशी-खुशी रसोई में चला गया।

सोनू ने दाल भिगो दी और ध्यान से मसालों को निकाला। लाल मिर्च, हल्दी, जीरा, धनिया पाउडर और रहस्यमय 'सुपर मसाला'—सभी को उसने धीरे-धीरे मिलाना शुरू किया।

राधा ने उसे बताया,
“सुन बेटा, मसाले डालते समय हमेशा ध्यान रखना। ज्यादा मसाले नहीं डालना, वरना स्वाद बिगड़ जाएगा।”

सोनू ने ध्यान से हर मसाला डाला और दाल उबलने लगी। जैसे ही दाल में तड़का डाला गया, घर में खुशबू फैल गई। सोनू की आँखों में चमक थी। उसने पहली बार महसूस किया कि खाना बनाना भी किसी जादू से कम नहीं।

दाल तैयार होते ही सोनू ने एक चम्मच उठाया। जैसे ही उसने दाल चखी, उसके मुँह में स्वाद का धमाका हो गया।
“वाओ! माँ, ये तो सच में लाजवाब है!”

राधा मुस्कुराईं और कहा,
“बेटा, तुम्हें मसाले का जादू नहीं चाहिए था, तुम्हारे प्यार का जादू चाहिए था।”

सोनू ने ठान लिया कि अब वह हर रविवार माँ के साथ दाल तड़का बनाएगा। धीरे-धीरे गाँव के बच्चे भी उसके घर आने लगे और दाल तड़का खाने लगे।

सोनू का मन अभी भी शांत नहीं था। उसने नई-नई रेसिपी ट्राय करने का सोचा। उसने अलग-अलग दालों से प्रयोग किए—मसूर, मूंग, तूर। कभी दाल में हरी सब्जियाँ मिलाईं, कभी सूखे मेवे। गाँव के लोग उसकी दाल की तारीफ़ करने लगे।

एक दिन गाँव के सरपंच ने कहा,
“सोनू, तुम्हारी दाल तड़का ने पूरे गाँव में खुशबू फैला दी है। क्यों न हम एक छोटा मेला लगाएँ और लोग तुम्हारी दाल चखें?”

सोनू की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने माँ से मदद माँगी और दोनों ने मिलकर दाल तड़का मेला की तैयारी शुरू कर दी।

मेले का दिन आया। सोनू ने अपने छोटे किचन में तरह-तरह की दाल बनाई—मसालेदार, हल्की, हरी सब्जियों वाली और मीठी दाल। गाँव के लोग, बच्चे, बड़े और बूढ़े सभी आए।

जैसे ही दाल के बर्तन खोले गए, पूरे गाँव में खुशबू फैल गई। लोग एक-एक करके दाल चखने लगे और तारीफों के पुल बाँध दिए।
“सोनू, तुम्हारी दाल में तो जादू है!”
“वाह, बेटा! ये दाल तो किसी रेस्टोरेंट से कम नहीं!”

सोनू का मन गर्व और खुशी से भर गया। उसने महसूस किया कि खाना केवल स्वाद का नहीं, बल्कि खुशियाँ बाँटने का माध्यम भी होता है।

सोनू ने अब ठान लिया कि वह केवल दाल ही नहीं, बल्कि नए-नए प्रयोग भी करेगा। उसने सोचा, “क्यों न दाल के साथ छोटे-छोटे खेल भी जोड़े जाएँ?”

सोनू ने दाल में रंग-बिरंगे सब्जियों से पैटर्न बनाना शुरू किया। एक दिन उसने दाल में छोटे-छोटे ‘चेहरे’ बनाए और गाँव के बच्चों को बताया कि ये “दाल तड़का के दोस्त” हैं। बच्चे हँसते-हँसते खाना खाते।

एक दिन गाँव में अचानक बिजली चली गई। सभी लोग अंधेरे में डर रहे थे। लेकिन सोनू ने टॉर्च जलाई, और दाल तड़का खाने का मज़ा अंधेरे में भी चला। बच्चे बोले,
“सोनू, तुमने हमें अंधेरे में भी खुशियाँ दी!”

सोनू की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने जाना कि खाना केवल पेट भरने का नहीं, बल्कि लोगों को खुश करने का तरीका है।

सोनू ने सीखा कि खाना बनाना सिर्फ खाना बनाने की प्रक्रिया नहीं है। इसमें प्यार, मेहनत, रचनात्मकता और खुशियाँ बाँटना शामिल है। मसाले मज़ा बढ़ा सकते हैं, लेकिन असली स्वाद दिल से आता है।

सोनू ने ठान लिया कि बड़ा होकर वह शेफ बनेगा, और अपने हाथों से लोगों को खुशियाँ देगा। गाँव के लोग हँसते और कहते,
“सोनू का तड़का हमेशा हमारे दिलों में रहेगा।”

और इस तरह, सोनू का मन पसंद दाल तड़का केवल एक व्यंजन नहीं, बल्कि गाँव की खुशियों का प्रतीक बन गया।

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