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अंधकार के बाद उजाला

सिया एक छोटे शहर में जन्मी थी , जहाँ हर घर में सीमित संसाधन और छोटे सपने ही रहते थे। उसके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे , जो अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते और अक्सर थके हुए घर लौटते , जबकि माँ घर संभालती और छोटी-छोटी खुशियों को जुटाने की कोशिश करतीं। बचपन से ही सिया ने गरीबी और संघर्ष को बहुत करीब से महसूस किया था। स्कूल में उसके पास सही किताबें या नए कपड़े नहीं होते थे , और अक्सर बच्चे उसका मजाक उड़ाते थे , लेकिन सिया हमेशा चुप रहती , अपने दिल में छोटे-छोटे सपनों को पनपाती। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी , जो उसके भीतर छुपी उम्मीद और आत्मविश्वास को दर्शाती थी। समय बीतता गया और सिया के पिता की तबीयत अचानक बिगड़ गई। परिवार पर आर्थिक दबाव बढ़ गया , और सिया को समझना पड़ा कि अब वह केवल अपनी पढ़ाई तक ही सीमित नहीं रह सकती , बल्कि घर के लिए भी जिम्मेदारियों को उठाना होगा। कई बार उसने स्कूल छोड़कर काम करने का सोचा , लेकिन माँ ने उसकी किताबों को गले लगाकर कहा , “ सिया , अगर तुम पढ़ाई छोड़ दोगी तो हमारे सपने भी अधूरे रह जाएंगे।” उस दिन सिया ने पहली बार अपने भीतर एक अडिग संकल्प महसूस किया। ...

“अमरपर्वत का रहस्य” — एक महा–रोमांचक हिंदी कहानी

 

राजस्थान के शुष्क मरुस्थल में बसे “थरगढ़” नामक कस्बे में, एक युवक रहता था — अर्णव। वह पेशे से एक फ़ोटोग्राफ़र था, पर दिल से एक खोजी। उसके दादा, स्वर्गीय राघव राय, पुराने समय में एक प्रसिद्ध अन्वेषक थे जिन्होंने भारत के जंगलों, हिमालय की चोटियों और दक्षिणी समुद्रों तक कई रहस्यमय अभियानों का नेतृत्व किया था।

अर्णव बचपन से दादाजी की कहानियों में डूबा रहा था। पर एक कहानी थी, जिसे दादाजी हमेशा आधे में छोड़ देते — “अमरपर्वत” की कहानी।

दादाजी कहते थे कि हिमालय के उत्तरी प्रांतों में कहीं एक ऐसा पर्वत है, जहाँ एक अमर स्रोत—जीवनजल—छिपा है। जो उस जल को पा ले, उसकी चेतना विस्तृत हो जाती है, और कुछ मान्यताओं के अनुसार उसे असाधारण शक्तियाँ प्राप्त हो सकती हैं। पर वहाँ पहुँचना असंभव माना जाता था।

दादाजी एक बार वहाँ गए थे... पर वापस लौटकर उन्होंने कहा था —
“वहाँ कुछ है… जो दुनिया के लिए तैयार नहीं।”

और उसके बाद वे कभी उस विषय पर नहीं बोले।

दादाजी की मृत्यु के तीन वर्ष बाद, एक दिन अर्णव को उनके पुराने ट्रंक में एक फटा-पुराना नक्शा मिला। नक्शे पर नीली स्याही से एक पर्वत का चित्र बना था, और नीचे लिखा था:

“अमरपर्वत — जो खोजे, वही पाए।”

नक्शे के पीछे एक नोट भी था:

“मेरी अधूरी कहानी कोई तो पूरी करेगा…
और अगर मेरा खून है, तो वही करेगा। — राघव”

अर्णव के भीतर जैसे आग जल उठी। उसने तय कर लिया कि वह इस रहस्य को उजागर करेगा, चाहे इसके लिए उसे दुनिया के आख़िर तक क्यों न जाना पड़े।

अर्णव जानता था कि हिमालय में अनजान जगह खोज निकालना आसान नहीं है। उसे एक ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत थी, जो पहाड़ों का सच्चा जानकार हो।

उसे याद आया कि उसके एक दोस्त नैमिश ने पिछले दो साल गढ़वाल के जंगलों में ट्रैकिंग गाइड के साथ बिताए थे और काफ़ी अनुभवी हो चुका था। अर्णव ने उसे फ़ोन किया और नक्शे की तस्वीर भेजी।

नैमिश ने कुछ देर बाद फोन करके कहा:

“अर्णव, यह इलाका मुझे जाना-पहचाना लगता है। यह उत्तराखंड और तिब्बत की सीमा के पास का कोई इलाका है। लेकिन वह जगह सरकारी नक्शों में नहीं है। शायद प्रतिबंधित क्षेत्र हो।”

अर्णव बोला, “क्या तू मेरे साथ चलेगा?”

फोन की दूसरी तरफ एक लंबी साँस सुनाई दी।

“मुझे पता है कि तू दादाजी की बातों को कितना दिल से लगाता है। ठीक है… मैं भी साथ चलूँगा। हो सकता है यह हमारी जीवन की सबसे बड़ी यात्रा हो।”

दोनों ने योजना बनाई और चार दिन बाद देहरादून में मिलने का निर्णय किया।

देहरादून में मिलने के बाद, दोनों ने अपनी ज़रूरत की चीज़ें खरीदीं —
पहाड़ी जूते, रस्सियाँ, तम्बू, स्लीपिंग बैग, एक पोर्टेबल पानी शुद्धिकरण किट, कैमरा, ड्रोन, गर्म कपड़े, और सीमित राशन।

अगले दिन वे बस से उत्तरकाशी पहुँचे, जहाँ से उन्हें एक स्थानीय गाइड मिला — कनक सिंह। वह लंबे क़द का, तेज़ निगाहों वाला, कुछ चुपचाप सा व्यक्ति था।

उसने नक्शा देखकर एक अजीब प्रतिक्रिया दी। पहले वह चौंका, फिर गहरी निगाहों से अर्णव की तरफ देखा।

“यह नक्शा... पुराने समय के एक रहस्यवादी समुदाय का लगता है। वे लोग सामान्य लोगों से दूर रहते थे। कहते हैं उस पर्वत के पास कुछ असाधारण होता है। आप लोग सच में यहाँ तक क्यों आए हो?”

अर्णव ने झूठ नहीं बोला। उसने दादाजी के बारे में सब बता दिया।

कनक कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला,
“ठीक है, मैं आपको उस दिशा में ले जा सकता हूँ। लेकिन एक बात याद रखना —
हिमालय कभी किसी को बिना परीक्षा लिए अपने रहस्य नहीं दिखाता।

यात्रा शुरू हुई।

तीसरे दिन तक वे घने जंगलों में थे, जहाँ चीड़ के इलाक़े धीरे-धीरे विरल होते जा रहे थे। तापमान कम होने लगा था। रास्ता दुर्गम होता जा रहा था।

रात को तम्बू में आग जलाए बैठे वे बातचीत कर रहे थे जब अचानक दूर से एक अजीब आवाज़ सुनाई दी —
जैसे कोई इंसान नहीं, कोई जानवर भी नहीं… कुछ और।

कनक बोला,
“यह आवाज़ मैंने पहले भी सुनी है। कहते हैं यह ‘पर्वत के रक्षक’ होते हैं। इन्हें देखने की मनाही है।”

अर्णव और नैमिश चिंतित हुए, पर वापस जाने का सवाल ही नहीं था।

अगले दिन उन्होंने एक चट्टान पर दादाजी की हस्तलिपि जैसी उकेरी हुई एक निशानी देखी —
एक ‘ॐ’ जैसा चिन्ह, पर उसके भीतर सूरज और चंद्रमा के प्रतीक जुड़े हुए थे।

नैमिश बोला, “यह तो प्राचीन योगियों का चिह्न है!”

अर्णव का दिल धड़क उठा। क्या दादाजी यहाँ सच में आए थे?

अब वे सरकारी सीमा चौकी के पास पहुँचे। कनक ने उन्हें चेतावनी दी कि यह इलाका आधिकारिक रूप से बंद है। कुछ दशकों पहले यहाँ किसी रहस्यमयी घटना के बाद प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया था।

रात के अँधेरे में, वे मुख्य रास्ता छोड़कर बर्फीले ढलानों से होते हुए आगे बढ़े। रास्ता खतरनाक था; एक गलत कदम उन्हें खाई में गिरा देता।

कई घंटों की कठिन चढ़ाई के बाद वे एक अजीब सी घाटी में पहुँचे — इतनी शांत कि हवा भी रुक गई थी। बर्फ चमक रही थी, लेकिन आसमान में तारे गायब थे। एक अजीब सी हिमकिरण घाटी के बीच से निकल रही थी।

नैमिश फुसफुसाया,
“यह प्राकृतिक नहीं है।”

घाटी के केंद्र में एक पत्थर का द्वार था — उस पर वही चिन्ह बना था जो दादाजी ने उकेरा था।

अर्णव ने हाथ बढ़ाकर द्वार को छुआ।

द्वार काँप उठा — जैसे वह जाग गया हो।

अचानक एक बर्फीला तूफ़ान उठा और पूरा इलाका गूँजने लगा। वे तीनों डरकर पीछे हटे।

द्वार धीरे-धीरे खुलने लगा।

द्वार के पीछे एक लंबी बर्फीली गुफा थी, जिसकी दीवारें नीले प्रकाश से चमक रही थीं। ऐसा दृश्य उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। अंदर एक अजीब ऊर्जा महसूस हो रही थी — जैसे गुफा में कोई प्राचीन शक्ति बह रही हो।

अचानक दीवारों पर आकृतियाँ उभरने लगीं —
हजारों साल पुराने योगियों और ऋषियों की, जिन्होंने गुप्त साधनाओं से अद्भुत शक्तियाँ पाई थीं।

एक आकृति ऐसी भी उभरी, जिसे देखकर अर्णव की साँस रुक गई।

वह दादाजी की आकृति थी।

नैमिश बोला, “यह सब रिकॉर्ड करो!”

लेकिन जैसे ही कैमरा निकाला गया, वह अपने आप बंद हो गया। गुफा में किसी तरह की ऊर्जा इलेक्ट्रॉनिक चीज़ों को निष्क्रिय कर रही थी।

अंदर आगे बढ़ते हुए वे एक विशाल कक्ष में पहुँचे, जहाँ हिमकण हवा में तैर रहे थे — पर गिर नहीं रहे थे, जैसे समय रुक गया हो।

एक पत्थर के मंच पर एक प्राणदीप रखा था, जिसकी लौ नीली-सुनहरी थी।

मंच पर लिखा था:

“जो सत्य की खोज में है, वही आगे बढ़ सकता है।
पर जो लालच में है, वह यहाँ नष्ट हो जाएगा।”

कनक धीरे से बोला,
“यह जगह… मन की परीक्षा लेती है।

अचानक कक्ष में गड़गड़ाहट हुई۔ दीवारों से बर्फ टूटने लगी और एक विशाल आकृति आकार लेने लगी —
दस फुट लंबा, सफ़ेद फर वाला, चमकती आँखों वाला एक प्राचीन प्राणी।

हिमरक्षक।

वह बोला — उसकी आवाज़ गुफा में गूँजता गर्जन थी:

“मनुष्य… फिर से इस पवित्र स्थान को भंग करने आए हैं?”

अर्णव आगे बढ़कर बोला,
“मैं यहाँ विनाश के लिए नहीं आया। मैं सिर्फ अपने दादाजी का सच जानना चाहता हूँ।”

हिमरक्षक उसकी ओर झुककर बोला,
“तुम्हारे दादा यहाँ आए थे।
उन्होंने जीवनजल की खोज की… पर उसका उपभोग नहीं किया।
उन्होंने कहा — ‘यह दुनिया के लिए नहीं।’
और उन्होंने प्रण किया कि वह इसे किसी को नहीं बताएँगे।”

अर्णव स्तब्ध था।
हिमरक्षक आगे बोला:

“लेकिन वह तुम्हारे लिए एक संदेश छोड़ गए थे।
उन्होंने कहा कि केवल उनका वंशज — यदि हृदय शुद्ध हुआ —
तो उसे जीवनजल की झलक दी जाए।”

कक्ष की दीवारें खुलने लगीं। एक गुप्त मार्ग प्रकट हुआ।

मार्ग एक विशाल गुफा में पहुँचता था। यहाँ हवा गर्म थी, और दीवारों से सुनहरे क्रिस्टल चमक रहे थे।

गुफा के केंद्र में एक जलस्रोत था — बहुत छोटा, पर अत्यंत उज्ज्वल।
पानी नहीं… वह जैसे तरल प्रकाश था।

अर्णव के कदम अपने आप उस ओर बढ़ गए।

नैमिश बोला,
“ध्यान रखना… दादाजी ने इसे दुनिया के लिए खतरनाक कहा था।”

हिमरक्षक पीछे खड़ा था और गंभीरता से देख रहा था।

अर्णव ने जीवनजल को नज़दीक से देखा।
उसे अचानक महसूस हुआ कि इस जल के पास खड़ा होने भर से उसका हृदय बेहद शांत हो रहा है, मन साफ़… जैसे सारी चिंताएँ किसी और दुनिया में चली गई हों।

अचानक उसे दादाजी की आवाज़ सुनाई दी —
जैसे वे वहीं हों:

“अर्णव… जीवनजल शक्ति देता है, पर इसके साथ जिम्मेदारी भी आती है।
इस जल को पाने वाला वही होना चाहिए जिसकी नीयत शुद्ध हो…
और जो इसे किसी लालची हाथों में न जाने दे।”

अर्णव की आँखें नम हो गईं।

हिमरक्षक बोला,
“यदि तुम चाहो, तो एक बूंद तुम्हारे लिए है।
पर यह बूंद तुम्हारे भीतर वही बढ़ाएगी… जो तुम वास्तव में हो।
यदि तुममें लोभ है, वह बढ़ेगा।
यदि साहस है, वह भी।
चुनाव तुम्हारा है।”

अर्णव चुपचाप घुटनों पर बैठ गया। उसने हाथ बढ़ाया और जीवनजल की एक बूंद हथेली में ले ली।

उस पल गुफा तेज़ प्रकाश से भर गई।

अर्णव को लगा जैसे उसके भीतर हज़ारों तारों की ऊर्जा बह रही हो।
पर यह कोई दर्दनाक ऊर्जा नहीं थी — यह शांत, सौम्य और ज्ञान से भरी हुई थी।

उसके भीतर दादाजी की यादें, उनकी बातें, उनकी शिक्षा जैसे जीवंत हो गईं।

उसे अचानक समझ में आया…
कि यह शक्ति दुनिया को नहीं बदलती —
यह सिर्फ उसे सक्षम बनाती है कि वह खुद को समझे, अपने डर को जीते, और सत्य मार्ग पर चले।

नैमिश ने पूछा,
“तू ठीक है?”

अर्णव मुस्कुराया।
“मैंने वह पा लिया… जिसकी मैं खोज में था।
सिर्फ एक रहस्य नहीं — बल्कि खुद को।”

हिमरक्षक बोला,
“तुम अब जा सकते हो।
पर याद रखना — यह स्थान फिर कभी तुम्हें नहीं बुलाएगा।
और तुम्हारे अलावा कोई दूसरा इसका मार्ग नहीं पाएगा।”

गुफा का मार्ग धीरे-धीरे बंद होने लगा।

वापसी की यात्रा आसान नहीं थी। उन्होंने कई दिनों तक बर्फ, हवा और तूफ़ानों से लड़ते हुए नीचे उतराई की।
पर वे तीनों सुरक्षित देहरादून पहुँचे।

नैमिश बोला,
“तू अब पहले जैसा नहीं रहा। कुछ बदल गया है।”

अर्णव हँसा,
“मुझे लगता है… मैं अब दुनिया को ज़्यादा साफ़ देख सकता हूँ।”

उसने फैसला किया कि वह इस रहस्य को किसी किताब में नहीं लिखेगा, न किसी को बताएगा।
अमरपर्वत का रहस्य इंसानों के लिए तैयार नहीं था — और शायद कभी नहीं होगा।

लेकिन उसने दादाजी की तरह यह संकल्प लिया:

“सत्य का मूल्य कभी भी दुनिया की लालसा से कम नहीं होना चाहिए।”

अर्णव अपने कैमरे, अपनी यात्राओं और अपनी नई चेतना के साथ दुनिया में लौट आया।
अब उसका मिशन सिर्फ रोमांच नहीं था —
बल्कि लोगों को यह एहसास दिलाना था कि दुनिया में शक्ति से कहीं ज्यादा ज़रूरी है ज्ञान, सद्भाव और आत्म-समझ।

कभी-कभी उसे रात में सपनों में हिमालय के वे नीले प्रकाश वाले कक्ष दिखाई देते…

और उसे यकीन होता कि दादाजी वहीं कहीं मुस्कुरा रहे हैं।

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