साहस का जन्म
बहुत समय पहले की बात है, पर्वतों और घने जंगलों के बीच बसा हुआ एक समृद्ध राज्य था, जिसका नाम था वीरगढ़। यह राज्य अपनी ऊँची
प्राचीरों, चमकते महलों और शांत नदियों के लिए जाना जाता
था। वीरगढ़ के लोग मेहनती, ईमानदार और
शांतिप्रिय थे, लेकिन उनके इतिहास में संघर्ष और युद्धों की
छाया भी रही थी। इसी राज्य में जन्म हुआ एक ऐसे बालक का, जो आगे चलकर राजा ब्रेव के नाम से
प्रसिद्ध हुआ।
राजा ब्रेव का असली नाम ब्रविंद्र था। वे वीरगढ़
के राजा महाराज धर्मवीर के इकलौते पुत्र थे। जन्म के समय ज्योतिषियों ने
भविष्यवाणी की थी कि यह बालक केवल एक राजा नहीं बनेगा, बल्कि अपने साहस से इतिहास बदल देगा। बालक ब्रविंद्र बचपन
से ही दूसरों से अलग था। जहाँ अन्य बच्चे खेल-कूद में मग्न रहते, वहीं ब्रविंद्र तलवारों, युद्ध कथाओं और
वीर योद्धाओं की कहानियों में रुचि रखता था।
ब्रविंद्र का पालन-पोषण
राजमहल में हुआ, लेकिन उन्हें कभी भी विलासिता का आदी नहीं बनाया
गया। राजा धर्मवीर चाहते थे कि उनका पुत्र धरती की सच्चाई समझे। इसलिए ब्रविंद्र
को साधारण वस्त्र पहनाकर कभी किसानों के खेतों में भेजा जाता, तो कभी सैनिकों के साथ अभ्यास करने। इससे बालक के मन में
अहंकार के बजाय कर्तव्य और
करुणा का भाव जन्म लेने लगा।
जब ब्रविंद्र दस वर्ष के
हुए, तभी वीरगढ़ पर पहला बड़ा संकट आया। उत्तर दिशा
के पर्वतों से लुटेरों का एक समूह राज्य की सीमाओं में घुस आया। वे गाँव जलाने लगे
और लोगों को डराने लगे। राजा धर्मवीर युद्ध के लिए निकले, लेकिन बालक ब्रविंद्र भी चुपके से उनके पीछे चल पड़ा।
युद्धभूमि में भय, धूल और तलवारों
की टकराहट देखकर भी ब्रविंद्र का हृदय डरा नहीं। एक घायल सैनिक को देखकर उन्होंने
बिना सोचे उसे पानी दिया और सुरक्षित स्थान तक पहुँचाया। यह दृश्य देखकर राजा
धर्मवीर को पहली बार एहसास हुआ कि उनका पुत्र केवल साहसी नहीं, बल्कि संवेदनशील भी है।
समय बीतता गया और ब्रविंद्र
किशोरावस्था में प्रवेश कर गए। गुरु द्रोणसेन के मार्गदर्शन में उन्होंने शस्त्र
विद्या, नीति शास्त्र और धर्म का गहन अध्ययन किया। गुरु
अक्सर कहते थे कि “सच्चा साहस तलवार उठाने में नहीं, बल्कि सही समय पर सही निर्णय लेने में होता है।” ये शब्द ब्रविंद्र के मन में
गहराई से बस गए।
एक दिन जंगल में अभ्यास के
दौरान ब्रविंद्र का सामना एक घायल सिंह से हुआ। सैनिक उसे मारना चाहते थे, लेकिन ब्रविंद्र ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने सिंह की
आँखों में दर्द और भय देखा और वैद्य को बुलाकर उसका उपचार करवाया। कुछ दिनों बाद
वही सिंह जंगल में स्वतंत्र घूमता दिखाई दिया। उस दिन से ब्रविंद्र समझ गए कि साहस का अर्थ केवल शक्ति नहीं, बल्कि दया भी है।
राजा धर्मवीर वृद्ध हो रहे
थे और राज्य की जिम्मेदारियाँ धीरे-धीरे ब्रविंद्र के कंधों पर आने लगीं। लेकिन
नियति ने उनके लिए और भी कठिन परीक्षाएँ रखी थीं। वीरगढ़ के आस-पास के राज्य
ईर्ष्या करने लगे थे, और एक बड़े
युद्ध की आहट हवा में महसूस होने लगी थी। ब्रविंद्र के जीवन का असली संघर्ष अब
शुरू होने वाला था।
यहीं से एक साधारण राजकुमार
की यात्रा एक महान राजा बनने की ओर मुड़ने लगी। आने वाले समय में ब्रविंद्र न केवल
वीरगढ़ की रक्षा करेंगे, बल्कि अपने
साहस, बुद्धि और करुणा से उन्हें राजा ब्रेव के नाम से अमर
कर देंगे।
षड्यंत्र और युद्ध की आहट
राजा धर्मवीर की तबीयत
दिन-ब-दिन कमजोर होती जा रही थी। दरबार में अब अधिकतर निर्णय युवराज ब्रविंद्र ही
लेने लगे थे। उनकी गंभीरता, शांत स्वभाव और
न्यायप्रियता से मंत्री और प्रजा सभी प्रभावित थे। लेकिन जहाँ प्रकाश होता है, वहाँ छाया भी जन्म लेती है। वीरगढ़ की बढ़ती शक्ति पड़ोसी
राज्य कालकेय के राजा विक्रमसेन को खटकने लगी थी।
राजा विक्रमसेन एक
महत्वाकांक्षी और क्रूर शासक था। उसे केवल विस्तार चाहिए था, चाहे उसके लिए कितने ही निर्दोष लोगों का बलिदान क्यों न
देना पड़े। उसने गुप्तचरों के माध्यम से वीरगढ़ की स्थिति का पता लगाया और जाना कि
राजा धर्मवीर अब कमजोर हो चुके हैं। यह अवसर देखकर विक्रमसेन ने वीरगढ़ को भीतर से
तोड़ने का षड्यंत्र रचना शुरू किया।
कालकेय के दूतों ने वीरगढ़
के कुछ लालची दरबारियों को सोने और पद का लालच दिया। धीरे-धीरे दरबार में
फुसफुसाहटें फैलने लगीं। कोई कहता कि युवराज ब्रविंद्र बहुत कोमल हृदय के हैं, तो कोई यह कि वे युद्ध के लिए तैयार नहीं। लेकिन ब्रविंद्र
इन बातों से विचलित नहीं हुए। वे जानते थे कि सच्चाई समय के साथ स्वयं प्रकट हो
जाती है।
एक रात गुप्तचर प्रमुख
आचार्य नीलकंठ ब्रविंद्र के पास आए। उन्होंने बताया कि कालकेय राज्य युद्ध की
तैयारी कर रहा है और कुछ ही महीनों में आक्रमण हो सकता है। यह सुनकर ब्रविंद्र ने
तुरंत सेना की तैयारियाँ शुरू करवाईं। किले मजबूत किए गए, अनाज का भंडारण बढ़ाया गया और सैनिकों का प्रशिक्षण दोगुना
कर दिया गया।
इसी बीच राजा धर्मवीर ने
ब्रविंद्र को अपने कक्ष में बुलाया। कमजोर स्वर में उन्होंने कहा, “पुत्र, अब समय आ गया
है कि तुम वीरगढ़ की पूरी जिम्मेदारी संभालो।” यह कहते हुए उन्होंने अपना राजमुकुट
ब्रविंद्र के हाथों में रख दिया। उस क्षण ब्रविंद्र की आँखों में आँसू थे, लेकिन मन में दृढ़ संकल्प भी था। उसी दिन वीरगढ़ को नया
राजा मिला — राजा ब्रेव।
राजा ब्रेव का राज्याभिषेक
सादगी से हुआ। उन्होंने सबसे पहले प्रजा को संबोधित किया और कहा कि यह राज्य केवल
राजा का नहीं, बल्कि हर नागरिक का है। उनकी बातों ने लोगों के
हृदय में नया उत्साह भर दिया। प्रजा जान गई थी कि उनका राजा न केवल साहसी है, बल्कि उनका सच्चा रक्षक भी है।
कुछ ही दिनों बाद कालकेय की
सेना ने सीमा पर हलचल शुरू कर दी। ढोल-नगाड़ों की आवाज़ें, धूल उड़ाते घोड़े और चमकती तलवारें युद्ध की घोषणा कर रही
थीं। राजा ब्रेव ने अपने सैनिकों को संबोधित किया और कहा कि यह युद्ध भूमि और
सत्ता के लिए नहीं, बल्कि सम्मान
और शांति के लिए लड़ा जाएगा। उनके शब्दों ने सैनिकों के भीतर आग जला दी।
युद्ध की पहली रात दोनों
सेनाएँ आमने-सामने थीं। आकाश में बादल गरज रहे थे, मानो प्रकृति भी इस संघर्ष की साक्षी बनने वाली हो। राजा ब्रेव अपने तंबू में
शांत बैठे थे, लेकिन उनके मन में भविष्य की योजनाएँ स्पष्ट
थीं। वे जानते थे कि केवल बल से नहीं, बल्कि बुद्धि
से ही यह युद्ध जीता जा सकता है।
दूसरी ओर, कालकेय के राजा विक्रमसेन अहंकार से भरा हुआ था। उसे
विश्वास था कि वीरगढ़ जल्दी ही उसके चरणों में झुक जाएगा। लेकिन उसे यह अनुमान
नहीं था कि उसके सामने जो राजा खड़ा है, वह केवल तलवार
का नहीं, बल्कि साहस और विवेक का योद्धा है।
युद्ध का पहला प्रहार होने
ही वाला था। इतिहास की दिशा बदलने वाली वह सुबह अब बहुत दूर नहीं थी।
महासंग्राम की शुरुआत
सूर्योदय के साथ ही
युद्धभूमि पर शंखनाद गूँज उठा। वीरगढ़ और कालकेय की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं।
चारों ओर धूल, घोड़ों की हिनहिनाहट और सैनिकों के युद्धघोष
वातावरण को भारी बना रहे थे। राजा ब्रेव अपने श्वेत अश्व पर सवार थे, उनके हाथ में चमकती तलवार थी और आँखों में अद्भुत शांति। वे
जानते थे कि भय फैलाने वाला राजा कभी विजेता नहीं बनता।
पहला आक्रमण कालकेय की ओर
से हुआ। विक्रमसेन ने अपनी भारी पैदल सेना आगे बढ़ाई, यह सोचकर कि संख्या के बल पर वीरगढ़ की सेना टूट जाएगी।
लेकिन राजा ब्रेव पहले से तैयार थे। उन्होंने धनुर्धारियों को संकेत दिया और आकाश
तीरों से भर गया। यह केवल आक्रमण नहीं था, बल्कि रणनीति
का पहला पाठ था।
युद्ध बढ़ता गया। तलवारें
टकराईं, ढालें टूटीं और रणभूमि पर साहस की परीक्षा होने
लगी। राजा ब्रेव स्वयं आगे बढ़कर सैनिकों का उत्साह बढ़ा रहे थे। वे जहाँ जाते, वहाँ भय हट जाता और विश्वास जन्म लेता। उनके एक-एक निर्णय
से स्पष्ट था कि वे केवल योद्धा नहीं, बल्कि एक सच्चे
सेनानायक हैं।
इसी युद्ध में राजा ब्रेव
का सामना कालकेय के सेनापति भद्रक से हुआ। भद्रक विशाल शरीर और कठोर हृदय वाला
योद्धा था। उसने राजा ब्रेव को चुनौती दी। दोनों के बीच भीषण द्वंद्व हुआ। राजा
ब्रेव ने अपनी फुर्ती और बुद्धि से भद्रक को परास्त किया, लेकिन उसे प्राणघातक चोट नहीं पहुँचाई। उन्होंने उसे जीवित
छोड़ दिया और कहा कि युद्ध का उद्देश्य हत्या नहीं, बल्कि अधर्म को रोकना है। यह दृश्य देखकर दोनों सेनाओं के सैनिक स्तब्ध रह गए।
इस घटना का प्रभाव गहरा
पड़ा। वीरगढ़ की सेना का मनोबल बढ़ गया, जबकि कालकेय की
सेना में संशय फैलने लगा। उन्हें पहली बार अपने राजा के उद्देश्य पर प्रश्न उठने
लगे। युद्ध केवल तलवारों से नहीं, बल्कि विचारों
से भी लड़ा जा रहा था।
रात होते-होते युद्ध
अस्थायी रूप से रुका। दोनों ओर घायल सैनिकों की कराह सुनाई दे रही थी। राजा ब्रेव
ने आदेश दिया कि शत्रु पक्ष के घायल सैनिकों को भी जल और औषधि दी जाए। यह निर्णय
कुछ मंत्रियों को अजीब लगा, लेकिन प्रजा और
सैनिकों के हृदय में राजा ब्रेव की छवि और भी ऊँची हो गई।
उधर राजा विक्रमसेन क्रोध
से भर उठा। उसे अपने सेनापति की हार अपमानजनक लगी। उसने अगले दिन छल से आक्रमण
करने की योजना बनाई। अंधकार में हमला करने और पीछे से वार करने का षड्यंत्र रचा
गया। लेकिन उसे यह ज्ञात नहीं था कि राजा ब्रेव के गुप्तचर हर गतिविधि पर दृष्टि
रखे हुए थे।
अगली सुबह युद्ध और भी
भयानक होने वाला था। केवल शक्ति नहीं, बल्कि सत्य और
छल आमने-सामने खड़े थे। राजा ब्रेव समझ चुके थे कि यह युद्ध उनके जीवन की सबसे
बड़ी परीक्षा है।
महासंग्राम का असली रूप अब
सामने आने ही वाला था।
विश्वास और विश्वासघात
रात का अंधकार युद्धभूमि पर
धीरे-धीरे उतर रहा था। दोनों सेनाएँ अपने-अपने शिविरों में थीं, लेकिन शांति केवल दिखावटी थी। कालकेय की ओर से छलपूर्ण
आक्रमण की योजना बन चुकी थी। कुछ विश्वासघाती सैनिकों को वीरगढ़ की सेना में
घुसपैठ करने का आदेश दिया गया था, ताकि भीतर से
अव्यवस्था फैलाई जा सके।
लेकिन राजा ब्रेव के
गुप्तचर पहले ही सचेत हो चुके थे। उन्होंने समय रहते सूचना राजा तक पहुँचा दी।
राजा ब्रेव ने बिना शोर मचाए सेना को सतर्क कर दिया और विश्वासघातियों को रंगे
हाथों पकड़ लिया गया। यह घटना सैनिकों के लिए एक कड़ा संदेश थी कि राजा केवल
रणभूमि में ही नहीं, बल्कि अंधकार
में भी जाग्रत रहता है।
इसी बीच वीरगढ़ के दरबार का
एक मंत्री, जो पहले से ही लालच में डूबा था, कालकेय से गुप्त रूप से मिला। उसने राज्य की कमजोरियों की
जानकारी देने का प्रयास किया। परंतु भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था। वही मंत्री
पकड़ा गया और राजा ब्रेव के सामने लाया गया। दरबार में सन्नाटा छा गया।
राजा ब्रेव ने मंत्री को
दंड देने से पहले उससे कारण पूछा। मंत्री ने कांपते स्वर में अपने लोभ को स्वीकार
किया। राजा ब्रेव ने कठोर स्वर में कहा कि विश्वासघात राज्य की नींव को हिला देता
है। लेकिन उन्होंने मंत्री को मृत्युदंड नहीं दिया। उसे राज्य से निष्कासित कर
दिया गया, ताकि वह जीवनभर अपने कर्मों पर विचार कर सके। यह
निर्णय राजा ब्रेव के न्याय और करुणा दोनों को दर्शाता था।
अगली सुबह कालकेय ने पीछे
से आक्रमण करने का प्रयास किया, लेकिन वीरगढ़
की सेना तैयार थी। घोर युद्ध हुआ। राजा ब्रेव ने सेना को तीन भागों में बाँटकर
रणनीतिक घेराबंदी की। यह चाल विक्रमसेन की समझ से परे थी। धीरे-धीरे कालकेय की
सेना कमजोर पड़ने लगी।
युद्ध के बीच राजा ब्रेव को
यह अहसास हुआ कि केवल युद्ध जीतना ही पर्याप्त नहीं है। यदि कालकेय पूरी तरह नष्ट
हुआ, तो निर्दोष प्रजा को कष्ट होगा। यह विचार उनके
मन में गहराता गया। उन्होंने युद्ध को निर्णायक मोड़ तक ले जाने का निश्चय किया, जहाँ हिंसा का अंत संभव हो।
उधर राजा विक्रमसेन अपने ही
सैनिकों का विश्वास खोने लगा था। उसके आदेश कठोर और निर्दयी थे। कई सैनिक युद्ध से
पीछे हटने लगे। उन्हें पहली बार लगा कि वे गलत पक्ष में खड़े हैं।
संध्या के समय दोनों सेनाएँ
थक चुकी थीं। राजा ब्रेव ने युद्ध विराम का संकेत दिया और संदेश भिजवाया कि वे
विक्रमसेन से आमने-सामने वार्ता करना चाहते हैं। यह प्रस्ताव सुनकर विक्रमसेन
अचंभित रह गया। उसे लगा कि यह कोई नई चाल है, लेकिन
परिस्थितियों ने उसे वार्ता के लिए विवश कर दिया।
उस रात दो राजाओं की
मुलाकात तय हुई। यह मुलाकात केवल दो व्यक्तियों की नहीं, बल्कि दो विचारधाराओं की टकराहट होने वाली थी। वीरगढ़ और
कालकेय का भविष्य उसी वार्ता पर निर्भर था।
दो राजाओं का संवाद
रात गहरी और शांत थी।
युद्धभूमि के मध्य एक खुला मैदान चुना गया, जहाँ न तो
हथियारों की अनुमति थी और न ही सेनाओं की उपस्थिति। केवल दो राजा, कुछ गिने-चुने अंगरक्षक और जलती मशालें। आकाश में चंद्रमा
साक्षी बनकर चमक रहा था।
राजा ब्रेव शांत कदमों से
आगे बढ़े। उनके चेहरे पर न क्रोध था, न भय। दूसरी ओर
राजा विक्रमसेन भारी कदमों से आया, उसकी आँखों में
संदेह और अहंकार दोनों झलक रहे थे। कुछ क्षणों तक दोनों एक-दूसरे को देखते रहे, मानो वर्षों का इतिहास मौन में ही पढ़ रहे हों।
सबसे पहले राजा ब्रेव ने
मौन तोड़ा। उन्होंने कहा कि यह युद्ध किसी की विजय से अधिक, हानि का कारण बन रहा है। निर्दोष सैनिक और प्रजा इसका मूल्य
चुका रहे हैं। उन्होंने विक्रमसेन से पूछा कि क्या सत्ता के लिए इतनी पीड़ा उचित
है। उनके शब्दों में कठोरता नहीं, बल्कि सच्चाई
थी।
विक्रमसेन हँसा और बोला कि
संसार में शक्ति ही नियम बनाती है। जिसने जीत ली, वही सही। उसके लिए करुणा कमजोरी थी। उसने राजा ब्रेव को चेतावनी दी कि यदि वे
पीछे नहीं हटे, तो कालकेय पूरी शक्ति से वीरगढ़ को कुचल देगा।
राजा ब्रेव ने शांत स्वर
में उत्तर दिया कि शक्ति बिना धर्म के विनाश का कारण बनती है। उन्होंने कहा कि
सच्चा राजा वह होता है जो प्रजा की रक्षा करे, न कि उनके रक्त
से सिंहासन बनाए। ये शब्द विक्रमसेन के हृदय को कहीं न कहीं छू गए, लेकिन उसका अहंकार अभी भी भारी था।
संवाद लंबा चला। राजा ब्रेव
ने शांति संधि का प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा कि दोनों राज्य मिलकर व्यापार, कृषि और सीमाओं की रक्षा कर सकते हैं। इससे दोनों की प्रजा
सुखी रहेगी। लेकिन विक्रमसेन इस प्रस्ताव को अपनी हार समझ रहा था।
अंततः विक्रमसेन ने
प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और घोषणा की कि अगला दिन निर्णायक युद्ध का होगा। उसने
यह भी कहा कि वह राजा ब्रेव की दया को उनकी कमजोरी मानेगा। यह कहकर वह लौट गया।
राजा ब्रेव देर तक वहीं
खड़े रहे। उन्हें ज्ञात था कि अगला दिन अत्यंत कठिन होगा। लेकिन उनके मन में कोई
पश्चाताप नहीं था। उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया था। अब परिणाम समय पर छोड़ दिया।
अपने शिविर में लौटकर राजा
ब्रेव ने सैनिकों को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि वे युद्ध से नहीं, अन्याय से लड़ रहे हैं। उनका लक्ष्य विजय के साथ-साथ शांति
भी है। सैनिकों की आँखों में दृढ़ निश्चय झलक उठा।
रात समाप्ति की ओर थी। भोर
के साथ एक ऐसा युद्ध आने वाला था, जो केवल
तलवारों का नहीं, बल्कि विचारों
और आत्मबल का संग्राम होगा। राजा ब्रेव जानते थे कि चाहे परिणाम कुछ भी हो, इतिहास इस दिन को याद रखेगा।
निर्णायक युद्ध
भोर की पहली किरण के साथ ही
युद्ध का नगाड़ा बज उठा। आकाश लालिमा से भर गया था, मानो आने वाले रक्तरंजित संघर्ष का संकेत दे रहा हो। वीरगढ़ और कालकेय की
सेनाएँ अंतिम युद्ध के लिए तैयार थीं। इस बार पीछे हटने का कोई मार्ग नहीं था।
राजा ब्रेव ने युद्ध से
पहले आँखें बंद कर कुछ क्षण मौन साधना की। फिर उन्होंने अपनी तलवार उठाई और सेना
की ओर देखा। उनके चेहरे पर अडिग विश्वास था। उन्होंने संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली
शब्दों में कहा कि यह युद्ध घृणा के लिए नहीं, बल्कि भविष्य
की रक्षा के लिए है। सैनिकों ने एक स्वर में जयघोष किया।
कालकेय की ओर से राजा
विक्रमसेन स्वयं अग्रिम पंक्ति में था। उसका क्रोध अब उग्र रूप ले चुका था। उसने
बिना किसी रणनीति के सीधा आक्रमण करने का आदेश दिया। उसकी सेना संख्या में अधिक थी, लेकिन अनुशासन में कमजोर।
जैसे ही युद्ध शुरू हुआ, रणभूमि शोर, धूल और टकराहट
से भर गई। राजा ब्रेव ने अपनी सेना को योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ाया। उन्होंने
घुड़सवारों को किनारों से आक्रमण करने का आदेश दिया और पैदल सेना को केंद्र में
टिके रहने को कहा। यह रणनीति कालकेय की सेना को विभाजित करने लगी।
राजा ब्रेव स्वयं युद्ध में
उतरे। वे जहाँ भी पहुँचे, वहाँ आशा की
किरण जगी। उन्होंने कई बार अपने सैनिकों को बचाया और उन्हें पीछे हटने से रोका।
लेकिन उन्होंने अनावश्यक हिंसा नहीं की। उनका लक्ष्य विजय था, विनाश नहीं।
युद्ध के मध्य राजा ब्रेव
और राजा विक्रमसेन आमने-सामने आ गए। दोनों की तलवारें टकराईं। यह संघर्ष केवल दो
राजाओं का नहीं, बल्कि दो सोच का था। विक्रमसेन का प्रहार उग्र
था,
जबकि राजा ब्रेव का वार संयमित और सटीक।
लंबे द्वंद्व के बाद
विक्रमसेन थकने लगा। उसका क्रोध ही उसकी कमजोरी बन गया। राजा ब्रेव ने एक अवसर पर
उसे पराजित कर दिया। विक्रमसेन भूमि पर गिर पड़ा। उस क्षण राजा ब्रेव के पास उसे
मारने का अवसर था।
लेकिन राजा ब्रेव ने तलवार
रोक ली। उन्होंने विक्रमसेन को जीवनदान दिया और कहा कि युद्ध यहीं समाप्त हो सकता
है। उन्होंने उसे आत्मसमर्पण करने का अवसर दिया, ताकि और रक्तपात न हो। यह दृश्य देखकर दोनों सेनाएँ स्तब्ध रह गईं।
कुछ क्षणों के मौन के बाद
विक्रमसेन ने अपनी हार स्वीकार कर ली। उसका अहंकार टूट चुका था। उसने पहली बार
समझा कि सच्ची शक्ति तलवार में नहीं, बल्कि संयम में
होती है।
युद्ध का अंत हुआ। रणभूमि
शांत होने लगी। धुआँ छँटने लगा और सूर्य पूर्ण रूप से आकाश में चमक उठा। वीरगढ़
विजयी हुआ, लेकिन यह विजय किसी पराजय की खुशी नहीं, बल्कि शांति की आशा लेकर आई थी।
विजय के बाद
युद्ध समाप्त हो चुका था, लेकिन उसके प्रभाव अभी भी चारों ओर महसूस किए जा सकते थे।
रणभूमि पर शांति तो थी, पर वह शांति
भारी थी, जैसे धरती स्वयं युद्ध की स्मृतियों को समेट रही
हो। राजा ब्रेव ने सबसे पहला आदेश दिया कि घायल सैनिकों—चाहे वे वीरगढ़ के हों या
कालकेय के—सबका उपचार समान रूप से किया जाए। यह आदेश सुनकर कई लोगों की आँखें भर
आईं।
कालकेय की सेना ने अपने
हथियार डाल दिए। राजा विक्रमसेन को सम्मान के साथ बंदी बनाया गया, अपमानित नहीं किया गया। राजा ब्रेव ने उसे अपने शिविर में
विश्राम और उपचार की सुविधा दी। यह व्यवहार विक्रमसेन के लिए अप्रत्याशित था। उसने
पहली बार महसूस किया कि उसने जिस करुणा को कमजोरी समझा था, वही सबसे बड़ी शक्ति है।
कुछ दिनों बाद वीरगढ़ में
विजय उत्सव का आयोजन हुआ। लेकिन यह उत्सव भव्यता से अधिक संयम का प्रतीक था। राजा
ब्रेव ने आदेश दिया कि कोई भी जश्न ऐसा न हो जिससे पराजित राज्य की प्रजा को ठेस
पहुँचे। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि यह विजय किसी राजा की नहीं, बल्कि धर्म और न्याय की है।
राजा ब्रेव ने कालकेय के
साथ शांति संधि की। सीमाएँ सुरक्षित की गईं, व्यापार के
मार्ग खोले गए और दोनों राज्यों की प्रजा के बीच विश्वास की नींव रखी गई।
विक्रमसेन को उसके राज्य में वापस भेज दिया गया, लेकिन अब वह एक बदला हुआ व्यक्ति था। उसने वचन दिया कि वह आगे किसी भी राज्य
पर अन्यायपूर्ण आक्रमण नहीं करेगा।
समय बीतता गया। राजा ब्रेव
का शासनकाल शांति, समृद्धि और
न्याय का प्रतीक बन गया। उन्होंने शिक्षा, कृषि और
व्यापार को बढ़ावा दिया। वे स्वयं साधारण वस्त्र पहनते और समय-समय पर प्रजा के बीच
जाकर उनकी समस्याएँ सुनते। लोगों के लिए वे केवल राजा नहीं, बल्कि मार्गदर्शक बन गए।
वर्षों बाद जब राजा ब्रेव
वृद्ध हुए, तो वीरगढ़ पहले से अधिक सशक्त और एकजुट था।
उन्होंने अपने उत्तराधिकारी को वही शिक्षा दी—कि साहस का अर्थ क्रोध नहीं, बल्कि सत्य के लिए अडिग रहना है। एक दिन शांत मन से
उन्होंने राजकार्य अपने पुत्र को सौंप दिया।
राजा ब्रेव इस संसार से विदा हुए, लेकिन उनकी कथा अमर हो गई। लोग आज भी वीरगढ़ में कहते हैं कि सच्चा राजा वह नहीं जो सबसे अधिक युद्ध जीते, बल्कि वह जो सबसे अधिक हृदय जीते। राजा ब्रेव उसी सत्य का जीवंत उदाहरण थे।
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