छाया का जन्म
विजयनगर साम्राज्य अपने
वैभव, शौर्य और अनुशासन के लिए पूरे आर्यावर्त में प्रसिद्ध था, लेकिन इस चमकते हुए साम्राज्य की नींव के नीचे साज़िशों की ऐसी जड़ें फैल चुकी
थीं, जिनका अंदाज़ा केवल कुछ चुनिंदा लोगों को ही था। राजा
प्रतापदेव सिंह एक न्यायप्रिय और दूरदर्शी शासक थे, पर उन्हें यह
ज्ञात नहीं था कि उनके ही दरबार में बैठे कुछ चेहरे मुस्कुराते हुए उनके साम्राज्य
की जानकारी शत्रु राज्य मालवा तक पहुँचा रहे थे। राज्य के उत्तर में बसे घने
जंगलों और पहाड़ियों के बीच एक गुप्त संगठन काम करता था, जिसे कोई नाम नहीं जानता था, लोग बस उसे “छाया” कहते थे।
यह संगठन सीधे राजा को उत्तरदायी था और इसके सदस्य अपनी पहचान, परिवार और अतीत तक को त्याग चुके थे। इसी संगठन में एक युवक था—अद्वित, जिसकी आँखों में असाधारण शांति और चाल में शिकारी जैसी सावधानी थी।
अद्वित का अतीत धुँधला था, लेकिन उसकी वर्तमान निष्ठा अडिग। बचपन में उसके माता-पिता को एक राजनीतिक
षड्यंत्र में मार दिया गया था, और उसे स्वयं राजा के
गुप्तचर प्रमुख आचार्य सोमदेव ने पाला था। सोमदेव ने उसे तलवार, धनुष, विष विज्ञान, कूटनीति और मनोविज्ञान—सब
सिखाया था, पर सबसे ज़्यादा उसे सिखाया गया था मौन। अद्वित जानता था कि
जासूस की सबसे बड़ी शक्ति उसका चुप रहना होता है। जब भी दरबार में कोई संदेश बिना
हस्ताक्षर के पहुँचता, जब कोई षड्यंत्र समय रहते विफल हो जाता, तब लोग कहते—“छाया ने काम किया है।”
एक रात, जब महल दीपों से सजा हुआ था और राजकुमारी अन्विता के जन्मदिवस का उत्सव चल रहा
था, उसी समय अद्वित महल की सबसे ऊँची मीनार पर खड़ा पूरे परिसर
पर नज़र रखे हुए था। उसकी दृष्टि उत्सव पर नहीं, बल्कि उन
चेहरों पर थी जो ज़रूरत से ज़्यादा सतर्क दिख रहे थे। तभी एक कबूतर उड़ता हुआ आया
और मीनार की जाली पर बैठ गया। अद्वित ने उसकी टाँग से बँधी छोटी सी नली निकाली।
संदेश छोटा था, लेकिन भयावह—“मालवा का गुप्त दल पूर्णिमा की रात आक्रमण
करेगा। भीतर का आदमी तैयार है।”
अद्वित समझ गया कि यह
साधारण हमला नहीं होगा। भीतर का आदमी कौन है, यही सबसे बड़ा प्रश्न था।
वह तुरंत सोमदेव के पास पहुँचा, जो महल के नीचे बने गुप्त
कक्ष में दीपक की मंद रोशनी में पुराने मानचित्र देख रहे थे। संदेश पढ़ते ही
सोमदेव का चेहरा कठोर हो गया। उन्होंने कहा कि इस बार युद्ध तलवारों से नहीं, बुद्धि से लड़ा जाएगा। अद्वित को आदेश मिला—दुश्मन से पहले दुश्मन के दिमाग तक
पहुँचना है। उसे मालवा जाना था, एक व्यापारी के वेश में, और पता लगाना था कि विजयनगर का कौन-सा स्तंभ खोखला हो चुका है।
अगली सुबह अद्वित एक साधारण
व्यापारी के रूप में नगर से निकला। उसके पास मसालों की थैलियाँ थीं, लेकिन असली बोझ उसके मन पर था। रास्ते में उसने देखा कि हर सराय, हर बाज़ार में मालवा के सिपाही गुप्त रूप से मौजूद थे। यह साफ़ था कि युद्ध की
तैयारी काफी समय से चल रही थी। मालवा पहुँचकर अद्वित ने धीरे-धीरे व्यापारियों के
बीच अपनी पहचान बनाई और कुछ ही दिनों में उसे पता चल गया कि मालवा का सेनापति किसी
अंदरूनी व्यक्ति की सूचना पर ही आगे बढ़ रहा है, जिसे वह
“स्वर्णमुख” कहता था।
एक रात, जब अद्वित एक शराबखाने में बैठा बातें सुन रहा था, उसने एक परिचित स्वर सुना। वह स्वर विजयनगर दरबार के एक वरिष्ठ मंत्री का था।
अद्वित का हृदय एक क्षण को रुक सा गया। क्या वही स्वर्णमुख था? उसने बिना कोई भाव प्रकट किए उस व्यक्ति की हर बात, हर हरकत को स्मृति में बाँध लिया। उस रात अद्वित ने समझ लिया कि यह मिशन केवल
राज्य की रक्षा का नहीं, बल्कि सत्य और विश्वासघात के बीच की रेखा खोजने का है।
पूर्णिमा की रात निकट आ रही
थी, और छाया के इस जासूस को समय से पहले सच्चाई उजागर करनी थी।
क्योंकि अगर वह चूक गया, तो विजयनगर केवल एक राज्य नहीं, बल्कि एक इतिहास बन जाएगा।
विश्वासघात की परछाइयाँ
मालवा की संकरी गलियों में
अद्वित अब एक जाना-पहचाना चेहरा बन चुका था, लेकिन हर मुस्कान के पीछे
वह एक और मुखौटा लगाए हुए था। व्यापारी के वेश में रहते हुए उसने यह भली-भाँति समझ
लिया था कि मालवा का दरबार जितना शक्तिशाली दिखता है, उतना ही भीतर से भय और लालच से भरा हुआ है। सेनापति भैरव सिंह को विजयनगर की
प्रत्येक चाल की जानकारी समय से पहले मिल जाती थी, और यह केवल तभी
संभव था जब भीतर से कोई अत्यंत प्रभावशाली व्यक्ति सूचना दे रहा हो। अद्वित की
स्मृति में उस शराबखाने की रात बार-बार उभर आती, जहाँ उसने
विजयनगर के वरिष्ठ मंत्री रुद्रसेन का स्वर सुना था। रुद्रसेन राजा के सबसे
विश्वसनीय मंत्रियों में गिने जाते थे, और यही तथ्य इस संदेह को और
भी भयावह बना देता था।
अद्वित ने जल्दबाज़ी में
कोई निष्कर्ष निकालना उचित नहीं समझा। छाया का नियम स्पष्ट था—संदेह प्रमाण नहीं
होता। उसने मालवा के गुप्त संदेशवाहकों का पीछा करना शुरू किया, उन रास्तों को चिन्हित किया जहाँ से कबूतर उड़ाए जाते थे और उन दूतों को
पहचाना जो रात के अंधेरे में सीमा पार करते थे। कई दिनों की निगरानी के बाद उसने
देखा कि हर पूर्णिमा से पहले एक विशेष संदेश मालवा के सेनापति तक पहुँचता था, और उस संदेश की भाषा वही होती थी जो केवल विजयनगर के उच्च दरबारी जानते थे। यह
अब केवल अनुमान नहीं रहा था, बल्कि एक सधी हुई चाल का
संकेत था।
एक रात अद्वित को अवसर
मिला। मालवा के किले में उत्सव का आयोजन था, और इसी अवसर पर सेनापति
भैरव सिंह अपने विश्वासपात्रों के साथ मदिरापान कर रहा था। अद्वित ने एक सेवक को
रिश्वत देकर भीतर प्रवेश किया और परदे के पीछे से बातचीत सुनने लगा। वहीं उसने वह
नाम सुना, जिसने उसके भीतर तूफान खड़ा कर दिया—“स्वर्णमुख का संदेश कल
ही पहुँचेगा, और विजयनगर की दक्षिणी दीवार सबसे कमज़ोर है।” अद्वित समझ
गया कि हमला निश्चित है और समय बहुत कम है।
लेकिन उसी क्षण एक अनहोनी
हो गई। किसी ने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। पलटते ही उसने देखा कि सामने मालवा की
गुप्तचर प्रमुख नायरा खड़ी थी—तीक्ष्ण आँखें, शांत स्वर और संदेह से भरी
मुस्कान। उसने कहा कि एक साधारण व्यापारी का इस तरह किले के भीतर घूमना असामान्य
है। अद्वित ने अपनी पूरी अभिनय क्षमता का उपयोग किया, व्यापार और लालच की कहानियाँ गढ़ीं, लेकिन नायरा की दृष्टि से
वह जान गया कि वह पूरी तरह आश्वस्त नहीं हुई है। यह पहली बार था जब छाया का यह
सदस्य इतना निकट से पकड़े जाने के खतरे में था।
किसी तरह उस रात वह बच
निकला, लेकिन अब उसके लिए मालवा में रहना असुरक्षित हो गया था।
उसने निर्णय लिया कि उसे सबूत के साथ विजयनगर लौटना होगा। सीमा के पास
पहुँचते-पहुँचते उस पर हमला हुआ। अंधेरे में तीर चले, और घोड़ों की टापों की आवाज़ गूँज उठी। अद्वित घायल हो गया, लेकिन अपने प्रशिक्षण और धैर्य के बल पर वह जंगल में छिपने में सफल रहा। वहीं
उसने अपने खून से सने हाथों से एक छोटा संदेश लिखा और एक कबूतर के साथ विजयनगर भेज
दिया—“स्वर्णमुख दरबार के बहुत निकट है। पूर्णिमा से पहले कार्यवाही आवश्यक।”
विजयनगर में सोमदेव ने
संदेश पढ़ते ही राजा को सावधान किया, लेकिन बिना ठोस प्रमाण किसी
मंत्री पर आरोप लगाना असंभव था। दूसरी ओर अद्वित धीरे-धीरे राजधानी की ओर लौट रहा
था, हर कदम पर खतरा और पीड़ा साथ लिए हुए। उसे पता था कि यदि वह
समय पर नहीं पहुँचा, तो न केवल युद्ध होगा, बल्कि विश्वास का ताना-बाना
भी टूट जाएगा। पूर्णिमा की रात अब बहुत पास थी, और छाया के इस जासूस के
सामने सबसे कठिन परीक्षा खड़ी थी—सत्य को उजागर करने की, बिना राज्य को तोड़े।
दरबार की साजिश
विजयनगर की राजधानी दीपकों
और धूप की रौशनी में चमक रही थी, लेकिन इसके भीतर का वातावरण
किसी तूफ़ान से कम नहीं था। अद्वित घावों और थकान के बावजूद महल पहुँचा। उसने अपने
पास मौजूद संदेश का विश्लेषण किया और तुरंत सोमदेव के पास पहुँचा। सोमदेव की आँखों
में गंभीरता थी, और वे जानते थे कि अब समय केवल योजना बनाने का नहीं, बल्कि तुरंत कार्रवाई का था।
राजा प्रतापदेव सिंह ने
अद्वित की रिपोर्ट सुनी और दरबार में एक सभा बुलवाई। सभा में मंत्रीगण, सेनापति और कई उच्च अधिकारी मौजूद थे। अद्वित ने बिना किसी नाम का उल्लेख किए
अपनी रिपोर्ट पेश की—मात्र संकेत दिए कि कोई अंदरूनी आदमी मालवा के साथ संबंध रखता
है। दरबार में हल्की सनसनी फैल गई, और मंत्रीगण आपस में
विचार-विमर्श करने लगे।
इसी बीच अद्वित ने अपने
भीतर की तीखी चेतना को सक्रिय किया। वह जानता था कि अगर उसने सही समय पर कार्रवाई
नहीं की, तो “स्वर्णमुख” अपनी चाल से विजयनगर को हानि पहुँचा देगा।
उसने सोमदेव को सुझाव दिया कि रात के समय एक गुप्त बैठक आयोजित की जाए, जिसमें केवल अत्यंत विश्वसनीय लोग ही मौजूद हों। राजा ने अनुमति दी, और उसी रात अद्वित ने महल के गुप्त कक्ष में मंत्रीगण की गुप्त बैठक का आयोजन
किया।
बैठक में अद्वित ने
धीरे-धीरे तथ्यों को पेश किया। उसने मालवा के किले, संदेशवाहक, और सीमा के पास हुए अटैक का वर्णन किया। सब सुनकर मंत्रीगण स्तब्ध थे। अचानक
अद्वित ने एक और कदम बढ़ाया—उसने संकेत दिए कि स्वर्णमुख दरबार में मौजूद ही किसी
व्यक्ति की पहचान में छिपा हुआ है। दरबार में चुप्पी छा गई। राजा ने सवाल किया, “कौन है वह?” अद्वित ने जवाब दिया, “मैं इस समय केवल संकेत दे
सकता हूँ। प्रमाण जुटाना आवश्यक है।”
यही समय था जब दरबार में
बैठे कुछ लोग घबराने लगे। रुद्रसेन की आँखों में हल्की चिंता झलक रही थी। अद्वित
ने अपने तीव्र दृष्टि से महसूस किया कि स्वर्णमुख वही हो सकता है। लेकिन बिना ठोस
प्रमाण के उसे पकड़ना मुश्किल था। सोमदेव ने सलाह दी कि राजा को पहले केवल योजना
के बारे में जानकारी दी जाए और अपने गुप्तचर दल को तैयार रखा जाए।
अगली रात अद्वित और कुछ
विश्वसनीय जासूस महल की छतों और गलियारों में घूमने लगे। उन्होंने हर दरवाजे, खिड़की और छिपी हुई सुरंग की निगरानी की। तभी उन्हें पता चला कि रुद्रसेन और
कुछ सहयोगी रात के समय गुप्त मार्ग से बाहर जा रहे थे। अद्वित ने चुपके से उनका
पीछा किया और देखा कि वे मालवा के गुप्त दूत से मिलने जा रहे थे।
इस दृश्य ने अद्वित की
चालाकी और साहस की परीक्षा ली। यदि उन्हें तुरंत नहीं रोका गया, तो स्वर्णमुख का संदेश मालवा पहुँच जाएगा और विजयनगर की दक्षिणी दीवार बेकार
हो जाएगी। अद्वित ने योजना बनाई कि वे संदेशवाहक और रुद्रसेन को एकसाथ पकड़ेंगे।
रात की काली चादर में अद्वित और उसके साथियों ने छिपकर उन पर हमला किया।
लड़ाई तेज और भीषण थी।
तीरों की बौछार, तलवारों की झनकार और पंखों की सरसराहट के बीच अद्वित ने
अपने प्रशिक्षण का पूरा उपयोग किया। अंततः उन्होंने रुद्रसेन और संदेशवाहक को पकड़
लिया। रुद्रसेन की आँखों में अब डर और पछतावा साफ दिख रहा था। उसने स्वीकार किया
कि स्वर्णमुख के आदेश में उसने राज की जानकारी मालवा तक पहुँचाई थी।
रुद्रसेन की पकड़ के साथ ही
अद्वित ने न केवल पहला कदम सफलतापूर्वक पूरा किया, बल्कि विजयनगर
की रक्षा की नींव भी मज़बूत कर दी। लेकिन एक सवाल अभी भी अनसुलझा था—स्वर्णमुख का
असली चेहरा अभी भी अज्ञात था। क्या वह केवल मालवा का गुप्त एजेंट था, या विजयनगर में कोई और भी शक्ति छिपी हुई थी?
पूर्णिमा की रात अब केवल दो
दिन दूर थी। अद्वित जानता था कि अंतिम टकराव अब अपरिहार्य है। न केवल युद्ध, बल्कि विश्वासघात और पहचान की लड़ाई भी उसी रात समाप्त होनी थी।
पूर्णिमा की रात
पूर्णिमा की रात का चाँद
आसमान में गोल और दमकता हुआ था। विजयनगर के महल की दीवारों पर चाँद की सफ़ेद रोशनी
पड़ रही थी, जैसे कि समूचा साम्राज्य एक शांत परन्तु सतर्क प्रहरी की
तरह जाग रहा हो। अद्वित महल की छत पर खड़ा था, उसकी आँखों में चिंता और
दृढ़ संकल्प दोनों झलक रहे थे। उसने सोमदेव से अंतिम बार योजना की पुष्टि की
थी—स्वर्णमुख का असली चेहरा पकड़ना और मालवा के गुप्त संदेशों को रोकना अब उसकी
जिम्मेदारी थी।
अद्वित ने अपने भरोसेमंद
जासूसों के साथ महल के गलियारों, छतों और गुप्त मार्गों का
निरीक्षण शुरू किया। उनका अंदाज बिल्कुल भी नहीं चूका कि स्वर्णमुख महल में ही
किसी रूप में मौजूद था। राजदरबार की चुप्पी और दीपों की मंद रोशनी बीच-बीच में
उसके कानों में संकेतों की तरह गूँज रही थी। तभी उसे कुछ हलचल सुनाई दी—दरबार की
दक्षिणी दीवार के पास हल्की खड़खड़ाहट। अद्वित ने तुरंत अपनी तलवार तैयार की और
धीमी चाल में उस दिशा की ओर बढ़ा।
वहाँ पहुँचते ही उसने देखा
कि रुद्रसेन किसी गुप्त मार्ग से मालवा के दूत से मिल रहे थे। लेकिन अब वह अकेले
नहीं थे। एक अजीब सी चमक उनके पीछे थी—स्वर्णमुख स्वयं मौजूद था। अद्वित को पता था
कि अब केवल तलवार या छल से ही काम नहीं चलेगा। उसने अपनी मानसिक चाल और छल का
सहारा लिया।
अद्वित ने चुपके से दरबार
के पुराने खंडहरों की ओर जाकर कुछ बम जैसी उपकरण तैयार की, जिन्हें उसने सोमदेव से सीखा था। जैसे ही रुद्रसेन और स्वर्णमुख बातचीत में
व्यस्त हुए, अद्वित ने उपकरण का प्रयोग किया—एक तेज़ ध्वनि और धुआँ पैदा
हुआ। इस हलचल और अंधेरे का लाभ उठाकर उसने उन्हें घेर लिया।
स्वर्णमुख ने अपनी असली
पहचान दिखाई—वह किसी और नहीं, बल्कि राजा का प्रिय
सेनापति भैरव सिंह था। अद्वित की आँखों में अस्वीकृति और हैरानी की झलक थी। भैरव
सिंह ने राजसत्ता और लालच की लालसा में रुद्रसेन को अपने साथ मिला लिया था। उनका
उद्देश्य विजयनगर की दक्षिणी दीवार को कमजोर करके मालवा की सेनाओं को प्रवेश देना
था।
अद्वित ने तुरंत मुकाबला
शुरू किया। तलवारों की टकराहट, कदमों की आहट और चीख-पुकार
के बीच अद्वित ने अपनी रणनीति का पूरा प्रयोग किया। उसने भैरव सिंह और रुद्रसेन को
अलग-अलग पकड़कर उनके गुप्त दस्तावेज़ और संदेश को नष्ट किया। इस कार्रवाई से महल
की रक्षा सुनिश्चित हुई।
अंततः स्वर्णमुख की साजिश
विफल हुई। रुद्रसेन और भैरव सिंह को बंदी बना लिया गया और विजयनगर के दरबार में
उनकी गलती सार्वजनिक की गई। राजा प्रतापदेव सिंह ने अद्वित की बहादुरी और सूझ-बूझ
की सराहना की। छाया के इस गुप्तचर ने न केवल राज की रक्षा की, बल्कि विश्वासघात और चालाकी की गहरी जटिलताओं को भी उजागर किया।
पूर्णिमा की रात के चाँद के
प्रकाश में अद्वित ने महसूस किया कि असली युद्ध केवल तलवारों का नहीं, बल्कि बुद्धि और चालाकी का होता है। उसे यह भी पता था कि स्वर्णमुख जैसे लोग
हमेशा कहीं न कहीं छिपे रहेंगे, पर छाया हमेशा उन्हें उजागर
करने के लिए तैयार रहेगी।
छाया का उत्तराधिकार
पूर्णिमा की रात के बाद
विजयनगर महल में फिर से शांति लौट आई। रुद्रसेन और भैरव सिंह की चालाकी विफल हो
चुकी थी, और राजा प्रतापदेव सिंह ने पूरे दरबार में अद्वित की
बहादुरी की घोषणा की। परंतु अद्वित के मन में राहत और संतोष के साथ-साथ सतर्कता भी
थी। उसे पता था कि जैसे ही विश्वासघात रोका गया, वैसे ही नए
खतरे और नई साज़िशें जन्म लेती हैं।
सावधानी के साथ सोमदेव ने
अद्वित को छाया के अगले उत्तराधिकारी के रूप में तैयार करना शुरू किया। उन्हें पता
था कि अद्वित न केवल युद्ध और तलवार में, बल्कि मानसिक लड़ाई और
चालाकी में भी मास्टर था। उन्होंने उसे राज्य की सुरक्षा, गुप्त संदेशवाहन, और जासूसों के प्रशिक्षण की जिम्मेदारी सौंप दी। अद्वित ने
स्वीकार किया, पर साथ ही यह शपथ ली कि वह कभी भी अपनी पहचान को सार्वजनिक
नहीं करेगा। छाया की ताकत इसी में थी—गुप्त रहना, पर हमेशा सतर्क
और निर्णायक होना।
विजयनगर में रुद्रसेन और
भैरव सिंह को कारागार में रखा गया। उनका विश्वासघात सबके सामने उजागर हुआ और यह
संदेश गया कि राज्य में विश्वासघात का कोई स्थान नहीं। पर अद्वित जानता था कि इस
सफलता का मतलब केवल अस्थायी विजय है। राजनीति, लालच और सत्ता के खेल में
हमेशा नए स्वर्णमुख उभरेंगे।
कुछ महीनों बाद अद्वित महल
की छत पर खड़ा चाँद की ओर निहार रहा था। हवाओं में महल के दीपक हल्के झिलमिला रहे
थे। उसने अपने भीतर कहा—“छाया हमेशा रहेगी। जब भी अंधेरा बढ़ेगा, मैं और मेरी टीम उस पर रोशनी डालेंगे।” उसकी आँखों में शांति और दृढ़ता थी, पर उसके कदम हमेशा सतर्क थे।
राजा प्रतापदेव सिंह ने
अद्वित को गुप्त सलाहकार और मुख्य जासूस घोषित किया। अद्वित अब केवल विजयनगर का ही
नहीं, बल्कि छाया के गुप्त संगठन का प्रतीक बन चुका था। उसका जीवन
अब एक मिशन बन चुका था—सत्य, न्याय और विश्वासघात के बीच
संतुलन बनाए रखना।
और इस तरह, विजयनगर साम्राज्य ने एक बार फिर से विश्वासघात और युद्ध की आग को मात दी। पर
अद्वित की गुप्त परछाई—छाया—हमेशा कहीं न कहीं तैयार रहती थी, ताकि भविष्य में भी कोई स्वर्णमुख राज्य की नींव को हिला न सके।
अद्वित का साहस, उसकी सूझ-बूझ और उसकी गुप्त पहचान ने साबित कर दिया कि असली शक्ति केवल तलवार
में नहीं, बल्कि दिमाग और धैर्य में होती है। और इस तरह छाया ने
विजयनगर की रक्षा की, अपनी शांति और गुप्त शक्ति के साथ, अनंत काल तक।
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