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अंधकार के बाद उजाला

सिया एक छोटे शहर में जन्मी थी , जहाँ हर घर में सीमित संसाधन और छोटे सपने ही रहते थे। उसके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे , जो अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते और अक्सर थके हुए घर लौटते , जबकि माँ घर संभालती और छोटी-छोटी खुशियों को जुटाने की कोशिश करतीं। बचपन से ही सिया ने गरीबी और संघर्ष को बहुत करीब से महसूस किया था। स्कूल में उसके पास सही किताबें या नए कपड़े नहीं होते थे , और अक्सर बच्चे उसका मजाक उड़ाते थे , लेकिन सिया हमेशा चुप रहती , अपने दिल में छोटे-छोटे सपनों को पनपाती। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी , जो उसके भीतर छुपी उम्मीद और आत्मविश्वास को दर्शाती थी। समय बीतता गया और सिया के पिता की तबीयत अचानक बिगड़ गई। परिवार पर आर्थिक दबाव बढ़ गया , और सिया को समझना पड़ा कि अब वह केवल अपनी पढ़ाई तक ही सीमित नहीं रह सकती , बल्कि घर के लिए भी जिम्मेदारियों को उठाना होगा। कई बार उसने स्कूल छोड़कर काम करने का सोचा , लेकिन माँ ने उसकी किताबों को गले लगाकर कहा , “ सिया , अगर तुम पढ़ाई छोड़ दोगी तो हमारे सपने भी अधूरे रह जाएंगे।” उस दिन सिया ने पहली बार अपने भीतर एक अडिग संकल्प महसूस किया। ...

“समय की असली कीमत”

 भारत के एक छोटे से कस्बे सुगंधपुर में, जहाँ मिट्टी में भी सौंधी महक बसी रहती थी, वहाँ रहता था एक 18 वर्षीय लड़का—आरव। उसके पिताजी दर्जी का काम करते थे और माँ गृहिणी थीं। साधारण परिवार होने के बावजूद उनके घर में एक चीज़ कभी कम नहीं थी—प्यार और उम्मीद

लेकिन आरव के जीवन का एक बड़ा प्रश्न अभी भी अनसुलझा था—
“मैं अपने सपनों का क्या करूँ? और समय का इस्तेमाल कैसे करूँ?”

उसे हमेशा लगता था कि पूरा जीवन पड़ा है, पूरी दुनिया पड़ी है, अभी बहुत समय है।
पर उसे पता नहीं था कि समय कभी किसी का इंतज़ार नहीं करता…

आरव का सपना था—एक सफल लेखक बनना। उसके पास डायरी भरी थीं, विचार भरे थे, किताबों की सूची भरी थी… लेकिन एक चीज़ खाली थी—कर्म

हर सुबह वह सोचता—
“आज से लिखना शुरू करूँगा।”
पर दिन चाय, मोबाइल, दोस्तों, क्रिकेट और समय की बर्बादी में बीत जाता।

उसकी माँ अक्सर कहतीं,
“बेटा, समय एक नदी की तरह है, जो बह गया वो लौटकर नहीं आता।”

आरव मुस्कुरा देता, “अरे माँ, अभी तो मैं बड़ा ही नहीं हुआ, बहुत समय है!”

पर बहुत समय होना भी कभी-कभी सबसे बड़ा भ्रम होता है।

एक दिन कॉलेज से लौटते समय आरव की नज़र सड़क किनारे बैठे एक वृद्ध व्यक्ति पर पड़ी। उनकी दाढ़ी सफ़ेद थी, कपड़े थोड़े पुराने, लेकिन आँखें चमकदार और शांत।

उन्होंने पास बुलाकर कहा,
“बेटा, क्या तुम मुझे स्टेशन तक छोड़ सकते हो?”

आरव ने झट से बाइक रोकी। रास्ते में वृद्ध व्यक्ति पूछ बैठा,
“बेटा, तुम्हारी उम्र कितनी है?”

“अठारह।”

“और तुम क्या बनना चाहते हो?”

“लेखक…”

वृद्ध व्यक्ति मुस्कुराए,
“बहुत सुंदर। और इसके लिए क्या कर रहे हो?”

आरव चुप हो गया—पहली बार किसी ने सीधा सवाल दागा था।

वृद्ध ने कहा,
“समय को हल्के में मत लो, बेटा। यह जीवन का सबसे महंगा रत्न है।”

स्टेशन पर उतरकर उन्होंने एक छोटी सी घड़ी आरव को दी—पुरानी, पर बेहद खूबसूरत।
“इसे रखो। जब-जब तुम समय बर्बाद करोगे, यह टिक-टिक तुम्हें याद दिलाएगी कि जीवन तुम्हारा इंतज़ार नहीं कर रहा।”

आरव कुछ पूछ पाता, इससे पहले वो वृद्ध भीड़ में गायब हो गए।

उस रात आरव देर तक उस घड़ी की टिक-टिक सुनता रहा।
टिक… टिक… टिक…
उसे एहसास हुआ—
आज भी उसने कुछ नहीं किया।

लेकिन अगले ही दिन फिर वही दिनचर्या—
नींद लंबी
काम कम
मोबाइल ज़्यादा
और सपने अनछुए…

घड़ी की टिक-टिक अब उसे परेशान करने लगी थी, जैसे हर सेकंड उसे काट रही हो।
पर आदतें इतनी आसानी से नहीं बदलतीं।

आरव का दिल जोरों से धड़कने लगा। लेकिन उसने कुछ भी लिखा नहीं था—ना कोई कहानी, ना कोई विचार।

दोस्त भी हँसने लगे,
“लेखक साहब, आज तो आपकी कलम बोलनी चाहिए थी!”

उस हँसी ने कहीं न कहीं चुभन पैदा की।

वह घर आकर अपनी डायरी खोलकर बैठा।
कुछ लिखा नहीं जा रहा था।
अंदर सिर्फ अपराधबोध था।

रात के दो बजे, जब पूरा घर सो चुका था, आरव के कानों में वही घड़ी की टिक-टिक गूँज रही थी—
“तुम समय खो रहे हो… खो रहे हो… खो रहे हो…”

उस रात उसने पहला पन्ना भरा।
पहला कदम उठाया।

लेकिन जीवन आसान कहाँ होता है।

कभी बिजली चली जाती, कभी कॉलेज का प्रोजेक्ट बढ़ जाता, कभी दोस्तों का बुलावा आ जाता… और कई बार आलस जीत जाता।

पिताजी कहते,
“सपना बड़ा हो तो संघर्ष भी बड़ा होता है।”

पर आरव सीख रहा था।
वह हर दिन थोड़ा-थोड़ा बेहतर होने लगा।

एक दिन उसके कॉलेज में एक बड़ा साहित्यिक कार्यक्रम हुआ।
आरव ने अपना लेख भेजा था।

जब नामों की घोषणा हुई, उसका नाम नहीं था।
उसका दिल टूट गया।

वह चुपचाप घर लौटा।
कमरे में जाकर घड़ी उठाई—उसकी टिक-टिक आज और तेज़ लग रही थी।
इसे देखते हुए उसने सोचा—

“क्या मैं सच में समय का सही उपयोग कर रहा हूँ?”
“क्या मैं हार मान लूँ?”

माँ बाहर से आवाज़ लगाती हैं,
“बेटा खाना ठंडा हो रहा है।”
पर आरव का मन भारी था।

रातभर वह सोचता रहा—
हो सकता है उसने जितना काम किया, वो पर्याप्त नहीं था।
हो सकता है दुनिया में लाखों लोग उससे अधिक प्रयास कर रहे हों।

और उसी रात उसने फैसला किया—
“अब मैं आधे-अधूरे मन से काम नहीं करूँगा।”

आरव ने अपनी दिनचर्या पूरी तरह बदल दी।

  • हर सुबह 5 बजे उठना

  • एक घंटा पढ़ना

  • दो घंटे लिखना

  • मोबाइल का समय कम करना

  • लक्ष्य तय करना

  • हर सप्ताह एक नई कहानी लिखना

धीरे-धीरे उसके अंदर अनुशासन आने लगा।
वह समझ रहा था कि सपने समय माँगते हैं, लेकिन वे समय की कीमत वसूल भी करते हैं।

फिर एक दिन उसे एक ईमेल आया—
“आपकी कहानी ‘खोया हुआ समय’ हमारे मासिक पत्रिका में स्थान पा गई है।”

आरव की खुशी का ठिकाना नहीं था।
वह दौड़कर पिताजी को दिखाने लगा।
पिताजी ने उसे गले लगाते हुए कहा,
“मैं जानता था, तू करेगा।”

अब वह और प्रेरित हो गया।
लोग उसकी लिखावट पहचानने लगे।
कुछ ने उसे सोशल मीडिया पर भी सराहा।

आरव उन्हें देखते ही पहचान गया और दौड़कर उनके पैरों पर झुक गया।

वृद्ध ने कहा,
“लगता है अब यह घड़ी तुम्हें परेशान नहीं करती।”

आरव मुस्कुराया,
“अब उसकी टिक-टिक मुझे डराती नहीं, प्रेरित करती है।”

वृद्ध बोले,
“समय की कद्र करने वाला ही महान बनता है। तुम्हारी राह कठिन थी, लेकिन तुमने सही दिशा पकड़ ली।”

तीन साल बाद—
आरव की पहली किताब प्रकाशित हुई—
“समय की आवाज़”

लॉन्च पर भीड़ थी।
लोग ऑटोग्राफ ले रहे थे।
मीडिया उसके इंटरव्यू ले रही थी।

जब उससे पूछा गया—
“आपकी सफलता का असली राज़ क्या है?”

आरव ने सिर्फ इतना कहा,
“मैंने समय को अपना गुरु बना लिया।”

वह समझ चुका था—
सपनों को उड़ान देने वाली चीज़ ‘टैलेंट’ नहीं, बल्कि समय का सही उपयोग है।


कहानी का नैतिक संदेश (Moral of the Story)

समय दुनिया की सबसे कीमती चीज़ है।

  • पैसा वापस मिल सकता है

  • चीजें दोबारा खरीदी जा सकती हैं

  • रिश्ते सुधारे जा सकते हैं

लेकिन खोया हुआ समय कभी वापस नहीं आता।

सपने तभी सच होते हैं, जब हम हर दिन छोटे-छोटे कदम उठाते हैं।

आज का सही उपयोग ही कल की सफलता बनाता है।

समय को बर्बाद करना, खुद को बर्बाद करना है।

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