Skip to main content

खुद पर विश्वास

अमन एक साधारण से कस्बे में रहने वाला शांत स्वभाव का लड़का था। वह ज़्यादा बोलता नहीं था , लेकिन उसके मन में सवालों और सपनों की दुनिया हमेशा चलती रहती थी। उसके पिता एक छोटी सी दुकान चलाते थे और माँ घर के साथ-साथ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर घर की आमदनी में मदद करती थीं। परिवार बड़ा नहीं था , लेकिन जिम्मेदारियाँ कम भी नहीं थीं। अमन बचपन से ही दूसरों को ध्यान से देखता , उनकी बातें सुनता और चुपचाप उनसे सीखने की कोशिश करता था। स्कूल में अमन को “औसत छात्र” कहा जाता था। न बहुत आगे , न बहुत पीछे। शिक्षक उसे मेहनती तो मानते थे , लेकिन उनमें से किसी को भी उसमें कोई खास प्रतिभा नज़र नहीं आती थी। कई बार उसे भी यही लगने लगता कि शायद वह कुछ खास करने के लिए बना ही नहीं है। जब उसके दोस्त बड़े-बड़े सपनों की बातें करते , तब अमन चुप रह जाता , क्योंकि उसे खुद अपने सपनों पर पूरा भरोसा नहीं होता था। एक दिन स्कूल में भाषण प्रतियोगिता की घोषणा हुई। अमन का नाम भी सूची में था। उसे लगा यह कोई गलती होगी , क्योंकि वह मंच पर बोलने से डरता था। उसका दिल तेज़-तेज़ धड़कने लगा। उसने शिक्षक से नाम हटाने की विनती की , लेकिन...

खुद पर विश्वास

अमन एक साधारण से कस्बे में रहने वाला शांत स्वभाव का लड़का था। वह ज़्यादा बोलता नहीं था, लेकिन उसके मन में सवालों और सपनों की दुनिया हमेशा चलती रहती थी। उसके पिता एक छोटी सी दुकान चलाते थे और माँ घर के साथ-साथ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर घर की आमदनी में मदद करती थीं। परिवार बड़ा नहीं था, लेकिन जिम्मेदारियाँ कम भी नहीं थीं। अमन बचपन से ही दूसरों को ध्यान से देखता, उनकी बातें सुनता और चुपचाप उनसे सीखने की कोशिश करता था।

स्कूल में अमन को “औसत छात्र” कहा जाता था। न बहुत आगे, न बहुत पीछे। शिक्षक उसे मेहनती तो मानते थे, लेकिन उनमें से किसी को भी उसमें कोई खास प्रतिभा नज़र नहीं आती थी। कई बार उसे भी यही लगने लगता कि शायद वह कुछ खास करने के लिए बना ही नहीं है। जब उसके दोस्त बड़े-बड़े सपनों की बातें करते, तब अमन चुप रह जाता, क्योंकि उसे खुद अपने सपनों पर पूरा भरोसा नहीं होता था।

एक दिन स्कूल में भाषण प्रतियोगिता की घोषणा हुई। अमन का नाम भी सूची में था। उसे लगा यह कोई गलती होगी, क्योंकि वह मंच पर बोलने से डरता था। उसका दिल तेज़-तेज़ धड़कने लगा। उसने शिक्षक से नाम हटाने की विनती की, लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया और कहा, “कभी-कभी हमें वही करना पड़ता है जिससे हम सबसे ज़्यादा डरते हैं।” यह बात अमन के दिमाग में अटक गई।

घर आकर अमन ने माँ को सब बताया। माँ ने मुस्कुराकर कहा, “डर का मतलब यह नहीं कि तुम कमज़ोर हो, बल्कि इसका मतलब यह है कि तुम्हारे अंदर कुछ बड़ा करने की क्षमता है।” माँ के शब्दों ने उसे थोड़ी हिम्मत दी। उस रात अमन ने तय किया कि वह कोशिश ज़रूर करेगा, चाहे परिणाम कुछ भी हो।

अगले कई दिन उसने आईने के सामने खड़े होकर अभ्यास किया। शुरुआत में उसकी आवाज़ काँपती थी, शब्द भूल जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे उसमें सुधार आने लगा। वह समझ गया कि आत्मविश्वास कोई जादू नहीं, बल्कि अभ्यास से बनने वाली चीज़ है। हर दिन वह थोड़ा बेहतर बनने की कोशिश करता।

प्रतियोगिता का दिन आ गया। मंच पर चढ़ते समय उसके हाथ काँप रहे थे, लेकिन जैसे ही उसने बोलना शुरू किया, उसे अपने शब्दों में ताकत महसूस हुई। उसने अपनी कहानी सुनाई—एक साधारण लड़के की, जो खुद पर विश्वास करना सीख रहा था। जब वह भाषण खत्म करके नीचे उतरा, तो तालियों की गूंज उसके कानों में देर तक गूँजती रही।

उस दिन अमन को पहला पुरस्कार नहीं मिला, लेकिन उसे उससे कहीं ज़्यादा कीमती चीज़ मिली—खुद पर भरोसा। उसने समझ लिया कि जीत सिर्फ़ पदक से नहीं होती, बल्कि उस डर को पार करने से होती है जो हमें रोकता है।

यह तो बस शुरुआत थी। अमन की ज़िंदगी में अभी और भी कई चुनौतियाँ आने वाली थीं, लेकिन अब वह जान चुका था कि अगर इंसान खुद पर विश्वास कर ले, तो कोई भी मंज़िल दूर नहीं होती।

भाषण प्रतियोगिता के बाद अमन के अंदर कुछ बदल चुका था। वही लड़का जो पहले अपनी बात कहने से डरता था, अब खुद को समझने लगा था। स्कूल में शिक्षक भी उसके व्यवहार में आए बदलाव को महसूस करने लगे थे। वह अब सवाल पूछता, चर्चा में भाग लेता और अपनी राय रखने से नहीं हिचकिचाता। यह बदलाव अचानक नहीं था, बल्कि उस एक छोटे से साहसिक कदम का नतीजा था, जो उसने डर के बावजूद उठाया था।

समय बीतने के साथ अमन को एहसास हुआ कि आत्मविश्वास एक दरवाज़ा है, जिसे एक बार खोल दो तो नए रास्ते अपने आप दिखाई देने लगते हैं। उसने स्कूल की अन्य गतिविधियों में भी हिस्सा लेना शुरू किया—कभी वाद-विवाद, कभी समूह कार्य। हर बार उसका डर थोड़ा कम और विश्वास थोड़ा ज़्यादा हो जाता। वह अब समझ चुका था कि असफल होना कमजोरी नहीं, बल्कि सीखने की प्रक्रिया का हिस्सा है।

लेकिन ज़िंदगी हर बार आसान नहीं होती। एक परीक्षा में उसके अंक उम्मीद से कम आए। पुराने डर फिर से सिर उठाने लगे। मन में वही सवाल लौट आया—“क्या मैं सच में काबिल हूँ?” इस बार अमन ने खुद से भागने की बजाय खुद से बात की। उसने अपनी कमज़ोरियों को पहचाना और तय किया कि वह उनसे लड़ेगा, न कि उनसे छुपेगा। उसने मेहनत की दिशा बदली, मदद माँगना सीखा और धीरे-धीरे अपनी तैयारी मज़बूत की।

घर में भी माहौल बदल रहा था। माता-पिता को अब उस पर गर्व महसूस होने लगा था। वे समझ गए थे कि उनका बेटा सिर्फ़ पढ़ाई में ही नहीं, सोच में भी बड़ा हो रहा है। माँ अक्सर उससे कहतीं, “जो इंसान खुद को समझ ले, वही दुनिया को समझ सकता है।” ये बातें अमन के मन में गहराई तक उतर जाती थीं।

कुछ महीनों बाद स्कूल में एक और बड़ा मौका आया—एक अंतर-विद्यालय प्रतियोगिता, जहाँ पूरे ज़िले के छात्र भाग लेने वाले थे। पहले वाला अमन होता तो शायद नाम भी न लिखवाता, लेकिन इस बार उसने बिना हिचक अपना नाम दे दिया। उसे पता था कि जीत या हार से ज़्यादा ज़रूरी है कोशिश करना।

प्रतियोगिता के दिन उसने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। परिणाम जो भी रहा हो, लेकिन मंच से उतरते समय उसके चेहरे पर संतोष था। वह जानता था कि उसने खुद को पीछे नहीं हटने दिया। यही उसकी असली जीत थी।

अमन अब यह समझ चुका था कि आत्मविश्वास बाहर से नहीं आता, वह हमारे अंदर ही होता है—बस हमें उसे जगाने की ज़रूरत होती है। उसकी यात्रा अभी लंबी थी, लेकिन दिशा साफ़ थी। वह अब डर के साथ नहीं, भरोसे के साथ आगे बढ़ रहा था।

समय के साथ अमन की पहचान अब सिर्फ़ एक शांत लड़के की नहीं रही, बल्कि एक ऐसे विद्यार्थी की बन गई जो खुद पर भरोसा करना जानता था। स्कूल खत्म होने वाला था और भविष्य को लेकर सवाल फिर सामने खड़े थे। करियर, प्रतियोगिता और ज़िम्मेदारियों का डर अब भी था, लेकिन इस बार अमन उनसे भाग नहीं रहा था। उसने समझ लिया था कि डर होना गलत नहीं है, डर के आगे झुक जाना गलत है।

कॉलेज में प्रवेश के बाद माहौल फिर से बदला। नए लोग, नई चुनौतियाँ और पहले से कहीं ज़्यादा प्रतिस्पर्धा। कई बार अमन खुद को दूसरों से कम समझने लगता, लेकिन अब उसके पास एक अनुभव था—वह जानता था कि तुलना आत्मविश्वास को कमज़ोर कर देती है। उसने तय किया कि वह दूसरों से नहीं, बल्कि अपने बीते हुए कल से बेहतर बनने की कोशिश करेगा।

कॉलेज में उसे एक अवसर मिला—एक समूह परियोजना का नेतृत्व करने का। पहले तो वह हिचकिचाया, लेकिन फिर खुद को याद दिलाया कि जो मौके डराते हैं, वही आगे बढ़ाते हैं। उसने जिम्मेदारी स्वीकार की। शुरुआत में गलतियाँ हुईं, कुछ लोग उसकी बातों से सहमत नहीं थे, लेकिन अमन ने धैर्य और संवाद से काम लिया। धीरे-धीरे टीम ने उस पर भरोसा करना शुरू कर दिया और परियोजना सफल रही।

इस सफलता ने अमन को एक गहरी सीख दी—आत्मविश्वास का मतलब सब कुछ जानना नहीं, बल्कि सीखने के लिए तैयार रहना है। वह अब असफलताओं से डरता नहीं था, बल्कि उन्हें सुधार का मौका मानता था। उसके अंदर एक संतुलन आ गया था—न घमंड, न ही हीनभावना।

एक दिन उसने स्कूल के एक कार्यक्रम में जाकर छोटे बच्चों से बात की। उसने उन्हें बताया कि वह भी कभी मंच से डरता था, सवाल पूछने से घबराता था, लेकिन कोशिश ने उसकी सोच बदल दी। बच्चों की आँखों में चमक देखकर अमन को एहसास हुआ कि उसकी कहानी किसी और के लिए रास्ता बन सकती है।

अब अमन को यह समझ आ चुका था कि जीवन में सबसे बड़ी जीत खुद पर विश्वास करना सीखना है। जब इंसान खुद को स्वीकार कर लेता है, तो दुनिया अपने आप आसान लगने लगती है। उसकी यात्रा ने उसे यह सिखाया कि साधारण होना कमजोरी नहीं, बल्कि एक मज़बूत नींव हो सकती है।

अमन आज भी सपने देखता है, आज भी डर महसूस करता है, लेकिन फर्क सिर्फ़ इतना है कि अब डर उसे रोकता नहीं, बल्कि आगे बढ़ने की वजह बनता है। उसकी कहानी यही संदेश देती है—अगर इंसान खुद पर विश्वास करना सीख ले, तो कोई भी राह असंभव नहीं होती।


https://amzn.in/d/ftAcUlD

 

Comments

Popular posts from this blog

शादी, शरारत और रसगुल्ले: सोनू–प्रीति का सफ़र

यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक (fictional) है।  सोनू, प्रीति और इसमें वर्णित सभी व्यक्ति, घटनाएँ, स्थान और परिस्थितियाँ कल्पना पर आधारित हैं ।  इसमें किसी वास्तविक व्यक्ति, परिवार या घटना से कोई संबंध नहीं है।  कहानी का उद्देश्य केवल मनोरंजन और रचनात्मकता है।  30 नवंबर की रात थी—भव्य सजावट, ढोल का धमाका, चूड़ियों की खनखनाहट और रिश्तेदारों की भीड़। यही थी सोनू के बड़े भाई की शादी। प्रीति अपनी मौसी के परिवार के साथ आई थी। दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे… अभी तक। 🌸 पहली मुलाक़ात – वरमाला के मंच पर वरमाला का शूम्बर शुरू हुआ था। दूल्हा-दुल्हन स्टेज पर खड़े थे, और सभी लोग उनके इर्द-गिर्द फोटो लेने में जुटे थे। सोनू फोटोग्राफर के पास खड़ा था। तभी एक लड़की उसके बगल में फ्रेम में आ गई—हल्का गुलाबी लहँगा, पोनीटेल, और क्यूट सी घबराहट। प्रीति। भीड़ में उसका दुपट्टा फूलों की वायर में फँस गया। सोनू ने तुरंत आगे बढ़कर दुपट्टा छुड़ा दिया। प्रीति ने धीमे, शर्माए-सजाए अंदाज़ में कहा— “थैंक यू… वरना मैं भी वरमाला के साथ स्टेज पर चढ़ जाती!” सोनू ने पहली बार किसी शादी में...

डिजिटल बाबा और चिकन बिरयानी का कनेक्शन

  गाँव के लोग हमेशा अपने पुराने रिवाज़ों और पारंपरिक जीवन में व्यस्त रहते थे। सुबह उठते ही हर कोई खेत में या मंदिर में निकल जाता, और मोबाइल का नाम सुनना भी दूर की बात थी। लेकिन एक दिन गाँव में कुछ अलग हुआ। सुबह-सुबह गाँव की चौपाल पर एक आदमी पहुँचा। वो साधारण दिखता था, लंबा कुर्ता और सफेद दाढ़ी, लेकिन उसके हाथ में मोबाइल और ईयरफोन थे। गाँव वाले धीरे-धीरे इकट्ठा हो गए। गोलू ने धीरे से पप्पू से कहा, “ये कौन है, बाबा या कोई नया टीचर?” पप्पू बोला, “देखो तो सही, वीडियो कॉल पर किसी से बात कर रहे हैं।” डिजिटल बाबा ने सभी को देखकर हाथ हिलाया और बोला, “नमस्ते बच्चों! मैं डिजिटल बाबा हूँ। मैं आपको जीवन के हर रहस्य की जानकारी ऐप्स और सोशल मीडिया से दूँगा!” गाँव वाले थोड़े चौंके। पंडितजी शर्मा ने फुसफुसाते हुए कहा, “मोबाइल वाले संत? ये तो नई बात है।” बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां पंडितजी, अब ज्ञान केवल मंदिर में नहीं मिलता, बल्कि इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब पर भी मिलता है।” गोलू और पप्पू तो बेसब्र हो गए। उन्होंने तुरंत अपने मोबाइल निकालकर बाबा का लाइव वीडियो रिकॉर्ड करना शुरू क...

“दीपों का गाँव” — एक प्रेरक ग्रामीण कथा

  अरावली की तलहटी में बसे किशनपुर गाँव का सूरज किसी और जगह से थोड़ा अलग उगता था। क्यों? क्योंकि इस गाँव के लोग मानते थे कि हर दिन की पहली किरण उम्मीद, प्रेम और मेहनत का संदेश लेकर आती है। पर यह मान्यता हर किसी की नहीं थी—कम-से-कम गाँव के एक हिस्से की तो बिल्कुल भी नहीं। किशनपुर के दो हिस्से थे— ऊपरवाड़ा और नीचेवाला मोहल्ला । ऊपरवाड़ा समृद्ध था, वहीं नीचेवाला मोहल्ला गरीब। इस आर्थिक और सामाजिक दूरी ने गाँव में कई कड़वाहटें भरी थीं। पर इन्हीं सबके बीच जन्मा था दीपक , एक 14 वर्षीय लड़का, जिसकी आँखों में चमक थी, और जिसका दिल गाँव से भी बड़ा था। दीपक नीचे वाले मोहल्ले का था। उसका पिता, हरिलाल, गाँव का एकमात्र मोची था। माँ खेतों में मजदूरी करती थी। गरीबी के बावजूद दीपक पढ़ना चाहता था। उसका सपना था—गाँव के बच्चों के लिए एक ऐसी जगह बनाना जहाँ हर बच्चा पढ़ सके। किशनपुर में एक ही स्कूल था— सरकारी प्राथमिक विद्यालय । छोटा सा, जर्जर कमरों वाला स्कूल। लेकिन बच्चों के सपने बड़े थे। समस्या यह थी कि ऊपरवाड़े के लोग चाहते थे कि उनके बच्चे अलग बैठें। वे गरीब बच्चों के साथ पढ़ाना पसंद नहीं करत...