उत्तर भारत के मैदानी इलाके में बसा एक छोटा-सा गाँव — रामपुर।
चारों ओर खेत, बीच में पीपल का पेड़, पास ही एक पुराना तालाब और गाँव की पहचान — मिट्टी की सोंधी खुशबू।
रामपुर कोई अमीर गाँव नहीं था, लेकिन यहाँ के लोग दिल के धनी थे।
यहाँ दरवाज़े खुले रहते थे, और दिल भी।
गाँव में एक कहावत मशहूर थी —
“यहाँ आदमी अपनी ज़ुबान से जाना जाता है, जेब से नहीं।”
गाँव के बीचोंबीच रहता था हरदेव सिंह — सबके अपने हरदेव काका।
साठ साल की उम्र, सफेद धोती-कुर्ता, सिर पर गमछा।
कभी गाँव का सबसे बड़ा किसान था, लेकिन कर्ज़ और सूखे ने सब छीन लिया।
फिर भी उसके चेहरे से ईमानदारी नहीं छीनी जा सकी।
लोग कहते थे —
“हरदेव काका के पास पैसा नहीं, पर भरोसा बहुत है।”
गाँव की पंचायत हो, झगड़ा हो या सलाह —
सबसे पहले हरदेव काका को बुलाया जाता।
एक दिन खबर आई कि सरकार गाँव में नई सड़क और सिंचाई योजना शुरू करने वाली है।
इसके लिए एक अधिकारी भेजा जाएगा।
गाँव में हलचल मच गई।
लोगों को लगा —
अब रामपुर भी शहर से जुड़ेगा।
लेकिन हर बदलाव के साथ कुछ लोग ऐसे भी आते हैं,
जो सपनों को सौदे में बदल देते हैं।
सरकारी जीप से उतरे सुरेश वर्मा —
साफ कपड़े, चमचमाते जूते, हाथ में फाइल।
गाँव के कुछ लोग खुश हुए,
कुछ सतर्क।
सुरेश वर्मा मुस्कराते हुए बोले —
“सरकार आप लोगों के लिए बहुत कुछ करने वाली है, बस थोड़ा सहयोग चाहिए।”
सहयोग का मतलब कुछ लोग समझ गए।
गाँव के सरपंच बृजमोहन ने सुरेश वर्मा को अपने घर ठहराया।
रात को चुपचाप कुछ बातचीत हुई।
अगले दिन सूची निकली —
जिन खेतों से सड़क जानी थी,
उनमें ज़्यादातर सरपंच के रिश्तेदारों के नाम थे।
गरीब किसान पीछे छूट गए।
हरदेव काका ने सवाल उठाया —
“ये रास्ता तो तालाब के पास से तय हुआ था, अब बदल कैसे गया?”
सरपंच हँस दिया —
“काका, आप पुरानी बातें छोड़ो।”
एक तरफ —
पैसे और फायदे वाले लोग।
दूसरी तरफ —
सच और हक़ की बात करने वाले।
हरदेव काका अकेले नहीं थे,
लेकिन सबसे मज़बूत आवाज़ वही थे।
उन्होंने कहा —
“अगर सड़क गलत बनी, तो गाँव का पानी सूख जाएगा।”
किसी ने नहीं सुना।
एक रात हरदेव काका को किसी ने दरवाज़े के नीचे से कागज़ खिसका दिया।
उसमें लिखा था —
“अगर ज़्यादा बोले, तो अंजाम बुरा होगा।”
काका ने कागज़ मोड़कर दिया जला दिया।
बोले —
“सच को डराया नहीं जाता।”
निर्माण शुरू हुआ।
तालाब की मिट्टी भरने लगी।
कुछ महीनों में पानी का स्तर गिर गया।
फसलें सूखने लगीं।
सरपंच ने कहा —
“ये सब मौसम की मार है।”
लेकिन गाँव जानता था —
यह लालच की मार थी।
एक दिन सुरेश वर्मा खुद हरदेव काका के घर आया।
बोला —
“काका, ये लो पचास हज़ार।
आप भी खुश, हम भी खुश।”
काका ने पैसे की तरफ देखा,
फिर सुरेश वर्मा की आँखों में।
शांत स्वर में बोले —
“बेटा, ये मिट्टी मैंने माँ समझी है।
मैं इसे बेच नहीं सकता।”
अगले दिन पंचायत में हरदेव काका को बेइज़्ज़त किया गया।
कहा गया —
“ये विकास के दुश्मन हैं।”
कुछ लोग चुप रहे,
कुछ ने सिर झुका लिया।
काका अकेले पड़ गए।
एक साल बाद —
भीषण गर्मी।
तालाब सूख गया।
कुएँ जवाब दे गए।
गाँव में पानी के लिए हाहाकार मच गया।
सरपंच के घर भी पानी नहीं था।
बृजमोहन पहली बार हरदेव काका के पास आया।
आँखों में शर्म थी।
बोला —
“काका, हमसे गलती हो गई।”
काका ने कहा —
“गलती नहीं, लालच हुआ था।”
मामला ज़िले तक पहुँचा।
जाँच हुई।
सुरेश वर्मा निलंबित हुआ।
सरपंच हटाया गया।
तालाब को फिर से खोदा गया।
सड़क की दिशा बदली गई।
दो साल बाद रामपुर फिर हरा-भरा था।
तालाब में कमल खिले थे।
खेत लहलहा रहे थे।
गाँव वालों ने हरदेव काका के सम्मान में
तालाब का नाम रखा —
“ईमान सरोवर”
हरदेव काका ने बच्चों से कहा —
“बेटा,
गाँव, समाज और देश
पैसे से नहीं,
नीति से बनता है।जो सच के साथ खड़ा रहता है,
वो भले अकेला हो,
लेकिन कभी हारता नहीं।”
कहानी का नैतिक संदेश (Moral)
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लालच थोड़े समय का फायदा देता है,
लेकिन नुकसान पीढ़ियों तक जाता है -
ईमानदारी अकेली पड़ सकती है,
पर अंत में वही जीतती है -
विकास बिना नैतिकता के विनाश बन जाता है
-
गाँव की असली ताकत उसकी एकता और सच्चाई है
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