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सूखी धरती का किसान

किशनलाल एक गरीब किसान था , जो राजस्थान के एक छोटे से गाँव धोरापुर में रहता था। उसका गाँव चारों तरफ़ से रेगिस्तान से घिरा हुआ था , जहाँ बारिश मेहमान की तरह कभी-कभी ही आती थी। किशनलाल का घर मिट्टी और पत्थरों से बना था , जिसकी छत पर सूखी घास डाली गई थी। गर्मियों में घर तंदूर की तरह तपता और सर्दियों में ठंडी हवाएँ भीतर तक घुस आती थीं। किशनलाल के पास सिर्फ़ तीन बीघा ज़मीन थी , लेकिन वह ज़मीन भी ज़्यादातर समय सूखी रहती थी। पानी के नाम पर बस एक पुराना कुआँ था , जिसमें हर साल पानी का स्तर कम होता जा रहा था। उसकी पत्नी धापू और दो बच्चे—रमेश और चंदा—उसके जीवन का सहारा थे। धापू बहुत सहनशील और मेहनती स्त्री थी , जो हर परिस्थिति में घर को संभाले रखती थी। हर सुबह किशनलाल सूरज उगने से पहले उठकर खेत की ओर चला जाता। सूखी मिट्टी को हाथ में लेकर वह उसकी नमी को महसूस करने की कोशिश करता , लेकिन ज़्यादातर समय उसे सिर्फ़ धूल ही मिलती। फिर भी वह हार नहीं मानता। वह बाजरा और ज्वार जैसी फसलें बोता , जिन्हें कम पानी की ज़रूरत होती थी। बीज उसने सहकारी समिति से उधार लिए थे , जिन्हें चुकाने की चिंता उसे हर पल ...

गरीब किसान की कहानी

 रामदीन एक छोटा-सा किसान था, जो भारत के एक दूरदराज़ गाँव सोनपुर में रहता था। उसका घर कच्ची मिट्टी और टूटी हुई खपरैलों से बना था, जिसकी दीवारों में बरसात के दिनों में पानी रिस जाता था। घर के सामने एक नीम का पुराना पेड़ था, जो उसकी ज़िंदगी की तरह ही थका हुआ और झुका हुआ लगता था। रामदीन के पास केवल दो बीघा ज़मीन थी, जो उसे उसके पिता से विरासत में मिली थी। यही ज़मीन उसके जीवन का सहारा थी, लेकिन कई सालों से यह सहारा भी कमजोर पड़ता जा रहा था।

रामदीन की पत्नी सीता एक सीधी-सादी, मेहनती महिला थी। वह खेतों में पति के साथ काम करती, घर संभालती और अपने बच्चों—मोहन और गुड़िया—की देखभाल करती थी। मोहन बारह साल का था और पढ़ाई में होशियार था, जबकि गुड़िया आठ साल की मासूम बच्ची थी, जिसे किताबों से ज़्यादा खेतों में तितलियाँ पकड़ना अच्छा लगता था। रामदीन चाहता था कि उसके बच्चे उसकी तरह ज़िंदगी भर गरीबी और संघर्ष में न जिएँ, बल्कि पढ़-लिखकर कुछ बनें।

हर सुबह रामदीन सूरज निकलने से पहले उठ जाता। वह अपने पुराने फटे कुर्ते को पहनकर खेत की ओर चल देता। खेत तक जाने वाला रास्ता कच्चा था और बरसात में कीचड़ से भर जाता था। रास्ते में वह आसमान की ओर देखता और मन ही मन भगवान से अच्छी फसल की प्रार्थना करता। बारिश पिछले दो सालों से ठीक नहीं हुई थी। कभी बहुत ज़्यादा पानी गिरता, तो कभी बिल्कुल नहीं। फसल का हाल देखकर उसका दिल बैठ जाता था।

उस साल रामदीन ने गेहूँ की फसल बोई थी। उसने बीज उधार लेकर खरीदे थे और खाद के लिए साहूकार से कर्ज़ लिया था। गाँव का साहूकार, ठाकुर महाजन, अमीर और घमंडी आदमी था। वह गरीब किसानों की मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें ऊँचे ब्याज पर पैसा देता था। रामदीन जानते हुए भी कर्ज़ लेने को मजबूर था, क्योंकि उसके पास और कोई रास्ता नहीं था। खेत में बीज डालते समय उसके हाथ काँप रहे थे, लेकिन आँखों में उम्मीद की हल्की-सी चमक थी।

सीता अक्सर उसे समझाती, “भगवान पर भरोसा रखो, इस बार सब ठीक होगा।”
रामदीन हल्की-सी मुस्कान के साथ सिर हिला देता, लेकिन उसके मन में डर छिपा रहता। अगर इस बार भी फसल खराब हो गई, तो वह कर्ज़ कैसे चुकाएगा? बच्चों की पढ़ाई कैसे चलेगी? घर कैसे चलेगा? ये सवाल उसे रात में सोने नहीं देते थे।

गाँव का जीवन सरल था, लेकिन कठिनाइयों से भरा हुआ। सुबह-शाम खेतों में काम, दोपहर की तेज़ धूप, और शाम को थके कदमों से घर लौटना—यही रामदीन की दिनचर्या थी। कभी-कभी वह गाँव के दूसरे किसानों से बात करता, तो सबकी कहानी लगभग एक जैसी होती। कोई सूखे से परेशान था, कोई बाढ़ से, तो कोई कर्ज़ के बोझ से दबा हुआ था।

एक दिन अचानक आसमान में काले बादल छा गए। तेज़ हवा चलने लगी और देखते-देखते मूसलाधार बारिश शुरू हो गई। गाँव के लोग खुश हो गए, क्योंकि लंबे समय बाद अच्छी बारिश हो रही थी। रामदीन भी खेत की ओर दौड़ा। बारिश की बूँदें उसकी फसल पर गिर रही थीं, और उसे लग रहा था कि शायद भगवान ने उसकी सुन ली है। लेकिन उसकी खुशी ज़्यादा देर तक नहीं टिकी।

लगातार तीन दिन तक बारिश होती रही। खेतों में पानी भर गया और कई जगह फसल डूबने लगी। चौथे दिन जब बारिश रुकी और रामदीन खेत देखने पहुँचा, तो उसका दिल टूट गया। गेहूँ की नन्ही पौधियाँ पानी में सड़ने लगी थीं। वह चुपचाप मिट्टी पर बैठ गया और अपनी फसल को देखता रहा। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, लेकिन वह ज़ोर से रोया नहीं। उसे पता था कि रोने से कुछ बदलने वाला नहीं है।

घर लौटकर उसने सीता को कुछ नहीं बताया। लेकिन सीता उसकी खामोशी और बुझी हुई आँखों से सब समझ गई। उस रात घर में चूल्हा जला, लेकिन किसी का मन खाने में नहीं लगा। बच्चे भी चुप थे। घर में एक अजीब-सी उदासी छाई हुई थी।

कुछ दिनों बाद ठाकुर महाजन का आदमी कर्ज़ की याद दिलाने आया। उसने सख़्त आवाज़ में कहा कि समय पर पैसा न देने पर ज़मीन गिरवी रखनी पड़ेगी। रामदीन ने हाथ जोड़कर समय माँगा, लेकिन उसे केवल ताने और धमकियाँ मिलीं। उस दिन पहली बार रामदीन को लगा कि शायद उसकी ज़मीन भी उससे छिन सकती है।

रात को वह देर तक नीम के पेड़ के नीचे बैठा रहा। आसमान में तारे चमक रहे थे, लेकिन उसकी ज़िंदगी में अँधेरा था। फिर भी उसके दिल के किसी कोने में एक छोटी-सी उम्मीद बाकी थी। वह जानता था कि जब तक मेहनत और हिम्मत ज़िंदा है, तब तक हार मानना सही नहीं है।

यही सोचकर उसने मन ही मन फैसला किया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, वह टूटेगा नहीं। अपने बच्चों के भविष्य के लिए, अपनी पत्नी के भरोसे के लिए और अपनी ज़मीन की खातिर वह आखिरी दम तक लड़ता रहेगा।

संघर्ष और उम्मीद

अगली सुबह रामदीन पहले से भी ज़्यादा बोझिल मन के साथ उठा। रात भर नींद उसकी आँखों से दूर रही थी। साहूकार की धमकियाँ उसके कानों में गूँज रही थीं। फिर भी उसने रोज़ की तरह खेत जाने का फैसला किया। वह जानता था कि चाहे हालात कितने भी खराब क्यों न हों, खेत से मुँह मोड़ लेना उसके बस की बात नहीं थी। खेत पहुँचकर उसने देखा कि कुछ जगहों पर पौधे पूरी तरह नष्ट हो चुके थे, लेकिन कुछ हिस्सों में अब भी हरियाली बाकी थी। उसी हरियाली ने उसके मन में थोड़ी-सी उम्मीद जगा दी।

रामदीन ने तय किया कि वह बची हुई फसल को हर हाल में बचाने की कोशिश करेगा। उसने गाँव के बुज़ुर्ग किसान हरिप्रसाद से सलाह ली। हरिप्रसाद ने उसे खेत से पानी निकालने और मिट्टी को सूखने देने की सलाह दी। रामदीन दिन-रात मेहनत करने लगा। वह नालियाँ साफ़ करता, पानी निकालता और खेत की मेड़ों को मजबूत करता। सीता भी उसके साथ लगी रहती। उनके हाथ छिल जाते, बदन थक जाता, लेकिन वे रुके नहीं।

इसी बीच मोहन की स्कूल की फीस भरने का समय आ गया। मास्टरजी ने चेतावनी दी कि अगर फीस नहीं भरी गई तो मोहन को स्कूल से निकाल दिया जाएगा। रामदीन का दिल बैठ गया। वह नहीं चाहता था कि उसका बेटा पढ़ाई छोड़कर खेतों में उसके साथ मजदूरी करे। बहुत सोच-विचार के बाद उसने अपनी एकमात्र बकरी बेचने का फैसला किया। बकरी बेचकर मिली थोड़ी-सी रकम से उसने मोहन की फीस भर दी। जब मोहन को यह पता चला, तो उसकी आँखों में आँसू आ गए। उसने मन ही मन ठान लिया कि वह खूब पढ़ेगा और एक दिन अपने माता-पिता की सारी तकलीफ़ें दूर करेगा।

गाँव में धीरे-धीरे खबर फैल गई कि रामदीन की फसल आधी खराब हो चुकी है। कुछ लोग सहानुभूति जताने आए, तो कुछ ने पीठ पीछे बातें बनाईं। किसी ने कहा, “गरीबी कभी पीछा नहीं छोड़ती,” तो किसी ने कहा, “किस्मत ही खराब है।” लेकिन रामदीन ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। उसे पता था कि दूसरों की बातों से पेट नहीं भरता।

एक शाम गाँव में सरकारी कर्मचारियों की टीम आई। वे किसानों के नुकसान का सर्वे करने आए थे। रामदीन ने उन्हें अपनी फसल दिखाई और सारी बात बताई। कर्मचारियों ने कागज़ों में कुछ लिखा और आश्वासन दिया कि सरकार की ओर से मदद मिलेगी। रामदीन को पूरी तरह भरोसा तो नहीं हुआ, लेकिन फिर भी उसने उम्मीद बाँध ली। कम से कम किसी ने उसकी बात तो सुनी थी।

दिन बीतते गए। बची हुई फसल धीरे-धीरे संभलने लगी। रामदीन हर रोज़ खेत में जाकर पौधों से ऐसे बात करता, जैसे वे उसके अपने बच्चे हों। वह उनसे कहता, “बस थोड़ा और टिके रहो, तुम बच गए तो हम सब बच जाएँगे।” उसकी मेहनत रंग लाने लगी और गेहूँ की बालियाँ निकलने लगीं। यह देखकर उसके चेहरे पर लंबे समय बाद सुकून की झलक दिखाई दी।

उधर ठाकुर महाजन फिर आया। इस बार उसका लहजा और भी सख़्त था। उसने साफ़ कहा कि अगली फसल कटने के बाद पूरा कर्ज़ चुकाना होगा, नहीं तो ज़मीन हाथ से चली जाएगी। रामदीन ने बिना कुछ कहे सिर झुका लिया। वह जानता था कि अब उसके पास समय बहुत कम है।

सीता ने उस रात उसे ढाढ़स बँधाया। उसने कहा, “हमने अब तक जो झेला है, उससे ज़्यादा क्या होगा? भगवान मेहनत करने वालों का साथ ज़रूर देता है।” सीता की बातें रामदीन के दिल को छू गईं। उसे एहसास हुआ कि वह अकेला नहीं है। उसकी पत्नी और बच्चे उसकी ताकत हैं।

इसी बीच मोहन ने स्कूल में एक प्रतियोगिता जीती। उसे पुरस्कार में कुछ पैसे मिले। मोहन ने खुशी-खुशी वह पैसे अपने पिता के हाथ में रख दिए और कहा, “बाबा, इसे रख लो, यह हमारे काम आएगा।” रामदीन की आँखें भर आईं। उसने बेटे को गले लगा लिया। उस पल उसे लगा कि शायद उसकी मेहनत बेकार नहीं जा रही है।

हालाँकि मुश्किलें अब भी खत्म नहीं हुई थीं, लेकिन रामदीन के दिल में अब डर से ज़्यादा हिम्मत थी। वह जानता था कि आने वाला समय निर्णायक होगा। फसल की कटाई नज़दीक थी और उसी पर उसके परिवार का भविष्य टिका हुआ था।

रात को जब वह आसमान की ओर देखता, तो अब उसे तारे उतने बेरहम नहीं लगते थे। उसे लगता था कि अँधेरे के बाद रोशनी ज़रूर आती है, बस इंसान को हार नहीं माननी चाहिए।

परीक्षा की घड़ी

कटाई का समय नज़दीक आ गया था। खेतों में गेहूँ की सुनहरी बालियाँ हवा के साथ लहराने लगी थीं। यह नज़ारा रामदीन के लिए खुशी और चिंता—दोनों लेकर आया था। खुशी इसलिए कि मेहनत पूरी तरह बेकार नहीं गई थी, और चिंता इसलिए कि फसल उम्मीद से कम थी। फिर भी यही फसल उसके परिवार और ज़मीन को बचाने की आखिरी उम्मीद थी।

रामदीन ने गाँव के कुछ मज़दूरों की मदद से कटाई शुरू की। सुबह से शाम तक वह खेत में डटा रहता। धूप तेज़ थी, हाथों में छाले पड़ गए थे, लेकिन वह रुका नहीं। हर बालि को काटते समय वह मन ही मन हिसाब लगाता—कितना अनाज होगा, कितना बिकेगा, और कितना कर्ज़ चुकाने में जाएगा। सीता घर से खाना लेकर आती और खेत में ही सबको खिला देती। उसका चेहरा थकान के बावजूद हौसले से भरा रहता।

कटाई पूरी होने के बाद अनाज को खलिहान में इकट्ठा किया गया। जब तौल हुई, तो पता चला कि पैदावार औसत से कम है, लेकिन पूरी तरह खराब भी नहीं। रामदीन ने राहत की साँस ली। उसने तुरंत फैसला किया कि अनाज मंडी में बेचकर सबसे पहले ठाकुर महाजन का कर्ज़ चुकाएगा, ताकि ज़मीन सुरक्षित रहे।

मंडी का दिन आया। रामदीन बैलगाड़ी में गेहूँ भरकर शहर की मंडी पहुँचा। वहाँ का माहौल अलग ही था—हर तरफ़ शोर, सौदेबाज़ी और भागदौड़। व्यापारी कम दाम लगाने की कोशिश कर रहे थे। रामदीन ने हिम्मत करके अपनी बात रखी और उचित दाम माँगा। कई बार मना किया गया, लेकिन आखिरकार एक व्यापारी ने ठीक-ठाक कीमत पर अनाज खरीद लिया। जब रामदीन के हाथ में पैसे आए, तो उसे लगा जैसे महीनों का बोझ कुछ हल्का हो गया हो।

मंडी से लौटते समय वह सीधे ठाकुर महाजन के घर गया। उसने कर्ज़ की रकम महाजन के सामने रख दी। महाजन को उम्मीद नहीं थी कि रामदीन इतनी जल्दी पैसे चुका देगा। उसने गिनती करके पैसे रख लिए और रसीद दे दी। हालाँकि उसका व्यवहार अब भी कठोर था, लेकिन रामदीन के दिल से एक बड़ा डर निकल चुका था। उसकी ज़मीन सुरक्षित थी—यह सोचकर उसकी आँखों में चमक आ गई।

घर लौटकर रामदीन ने सीता और बच्चों को खुशखबरी दी। घर में लंबे समय बाद सच्ची मुस्कान लौटी। उस दिन सीता ने सादा-सा लेकिन स्वादिष्ट खाना बनाया। मोहन और गुड़िया हँसते-बोलते रहे। उस छोटी-सी खुशी में उन्हें किसी बड़े त्योहार का आनंद मिल रहा था।

हालाँकि पैसे बहुत ज़्यादा नहीं बचे थे, लेकिन गुज़ारा चल सकता था। रामदीन ने तय किया कि अब वह बेवजह कर्ज़ नहीं लेगा। वह खेती के साथ-साथ कोई छोटा काम भी करेगा, ताकि आमदनी का दूसरा साधन बने। उसने गाँव के पास एक तालाब की मरम्मत के काम में मज़दूरी शुरू कर दी। मेहनत उसकी आदत थी, और वह किसी भी काम को छोटा नहीं समझता था।

मोहन पढ़ाई में और मन लगाने लगा। वह अक्सर अपने पिता की मदद भी करता, लेकिन पढ़ाई को कभी नज़रअंदाज़ नहीं करता था। गुड़िया भी अब स्कूल जाने लगी थी। रामदीन जब अपने बच्चों को किताबों के साथ देखता, तो उसे लगता कि उसकी सारी तकलीफ़ों का यही असली फल है।

एक शाम वह फिर नीम के पेड़ के नीचे बैठा। वही पेड़, वही आँगन, लेकिन इस बार उसके मन में डर नहीं था। उसे एहसास हुआ कि ज़िंदगी हमेशा एक जैसी नहीं रहती। कभी मुश्किलें आती हैं, तो कभी राहत के पल भी मिलते हैं। ज़रूरी यह है कि इंसान हिम्मत न हारे।

हालाँकि भविष्य में फिर चुनौतियाँ आ सकती थीं, लेकिन रामदीन अब पहले से ज़्यादा मज़बूत था। उसने सीख लिया था कि मेहनत, समझदारी और परिवार का साथ—इनसे बड़ी कोई दौलत नहीं होती।

नई सुबह

समय धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया। पिछली मुश्किलों ने रामदीन को तोड़ा नहीं, बल्कि और समझदार बना दिया था। अब वह खेती को पहले से ज़्यादा सोच-समझकर करने लगा था। उसने गाँव के कुछ प्रगतिशील किसानों से नई तकनीकों के बारे में सुना—कम पानी में खेती, जैविक खाद, और फसल बदलने के तरीके। भले ही उसके पास ज़्यादा साधन नहीं थे, लेकिन उसने जो संभव था, वह अपनाना शुरू किया।

अगले मौसम में रामदीन ने गेहूँ के साथ थोड़ी-सी दाल भी बोई। यह फैसला आसान नहीं था, लेकिन जोखिम उठाना ज़रूरी था। इस बार बारिश भी संतुलित हुई। न बहुत ज़्यादा, न बहुत कम। खेतों में हरियाली लौट आई। रामदीन जब सुबह खेत में जाता, तो मिट्टी की खुशबू उसे नई ताकत देती। उसे लगने लगा था कि उसकी ज़िंदगी भी उसी मिट्टी की तरह फिर से उपजाऊ हो रही है।

सीता अब गाँव की दूसरी महिलाओं के साथ मिलकर स्वयं सहायता समूह से जुड़ गई थी। वे मिलकर छोटे-छोटे काम करतीं और कुछ पैसे बचाने लगी थीं। इससे घर की हालत थोड़ी और सुधर गई। सीता को भी आत्मसम्मान महसूस होने लगा कि वह सिर्फ़ सहने वाली नहीं, बल्कि घर को संभालने वाली मज़बूत स्त्री है।

मोहन ने आठवीं कक्षा में पूरे स्कूल में पहला स्थान हासिल किया। मास्टरजी ने रामदीन को बुलाकर कहा, “तुम्हारा बेटा बहुत आगे जाएगा, बस पढ़ाई जारी रहने देना।” यह सुनकर रामदीन की आँखें भर आईं। उसने मन ही मन ठान लिया कि चाहे उसे कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े, वह अपने बच्चों की पढ़ाई कभी नहीं रुकने देगा। गुड़िया भी अब साफ़-साफ़ पढ़ने और लिखने लगी थी। वह अक्सर अपने पिता से कहती, “बाबा, मैं भी बड़ी होकर आपकी मदद करूँगी।”

गाँव में अब लोग रामदीन को अलग नज़र से देखने लगे थे। जो कभी उसकी हालत पर ताने मारते थे, वही अब उसकी मेहनत की मिसाल देने लगे। कुछ किसान उससे सलाह लेने आने लगे। रामदीन उन्हें यही कहता, “मैं कोई बड़ा आदमी नहीं हूँ, बस हार मानना नहीं सीखा।” उसकी सादगी और सच्चाई ने लोगों के दिल जीत लिए।

एक दिन सरकारी सहायता की वह राशि भी मिल गई, जिसका वादा सर्वे के समय किया गया था। रकम बहुत बड़ी नहीं थी, लेकिन उससे रामदीन ने खेत के लिए एक छोटा पानी का पंप खरीद लिया। यह उसके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। अब वह पूरी तरह बारिश पर निर्भर नहीं था। उस दिन उसने नीम के पेड़ के नीचे बैठकर देर तक आसमान की ओर देखा और मन ही मन भगवान का धन्यवाद किया।

सालों बाद रामदीन के घर दिवाली आई तो सच में खुशियों के साथ आई। घर की सफ़ाई हुई, बच्चों ने दीये सजाए, और सीता ने मिठाई बनाई। कोई बहुत बड़ा उत्सव नहीं था, लेकिन दिल से निकली मुस्कान थी। रामदीन ने बच्चों को पास बिठाकर कहा, “याद रखना, ज़िंदगी में परेशानी आए तो डरना मत। मेहनत और ईमानदारी कभी खाली नहीं जाती।”

नीम का पेड़ अब भी वहीं खड़ा था, लेकिन रामदीन को लगा जैसे वह पहले से ज़्यादा हरा हो गया हो। शायद वह सिर्फ़ पेड़ नहीं था, बल्कि रामदीन की अपनी ज़िंदगी का प्रतीक था—तूफ़ानों में झुका, लेकिन टूटा नहीं।

इस तरह एक गरीब किसान की कहानी सिर्फ़ गरीबी और दुख की कहानी नहीं रही, बल्कि संघर्ष, हिम्मत और उम्मीद की मिसाल बन गई। रामदीन अमीर नहीं बना, लेकिन उसने अपने परिवार को सम्मान, सुरक्षा और भविष्य दिया—और यही उसकी सबसे बड़ी जीत थी।


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