Skip to main content

बिना गुरु के ज्ञान

नदी के किनारे बसा वह छोटा-सा गाँव मानचित्रों में कहीं दर्ज नहीं था। लोग उसे जानते थे , पर दुनिया के लिए वह बस एक और गुमनाम बस्ती थी। उसी गाँव में माधव नाम का एक युवक रहता था , जो बाहर से देखने पर बिल्कुल साधारण लगता था , पर भीतर से लगातार जलता रहता था। जलता था अपनी असफलताओं से , अपनी तुलना से और इस प्रश्न से कि जीवन ने उसके साथ ही अन्याय क्यों किया। उसके हमउम्र लोग शहर जा चुके थे , कोई नौकरी में था , कोई व्यापार में , और माधव वहीं रह गया था—खेती करता हुआ , मिट्टी में हाथ सना हुआ , पर मन में असंतोष भरा हुआ। माधव हर सुबह नदी में स्नान करता , पर शुद्धि केवल शरीर की होती , मन की नहीं। उसे लगता कि उसका जीवन कहीं अटका हुआ है। वह मेहनत करता था , पर उसे कभी पर्याप्त नहीं लगता था। जब भी वह किसी सफल व्यक्ति के बारे में सुनता , उसके भीतर ईर्ष्या उठती। वह खुद को समझाता कि परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं , पर कहीं न कहीं वह जानता था कि जड़ उससे भी गहरी है। एक दिन गाँव में खबर फैली कि नदी के उस पार एक अजीब-सा साधु आया है। वह न प्रवचन देता है , न चमत्कार दिखाता है। वह बस नदी के किनारे बैठता है और लोगों क...

बिना गुरु के ज्ञान

नदी के किनारे बसा वह छोटा-सा गाँव मानचित्रों में कहीं दर्ज नहीं था। लोग उसे जानते थे, पर दुनिया के लिए वह बस एक और गुमनाम बस्ती थी। उसी गाँव में माधव नाम का एक युवक रहता था, जो बाहर से देखने पर बिल्कुल साधारण लगता था, पर भीतर से लगातार जलता रहता था। जलता था अपनी असफलताओं से, अपनी तुलना से और इस प्रश्न से कि जीवन ने उसके साथ ही अन्याय क्यों किया। उसके हमउम्र लोग शहर जा चुके थे, कोई नौकरी में था, कोई व्यापार में, और माधव वहीं रह गया था—खेती करता हुआ, मिट्टी में हाथ सना हुआ, पर मन में असंतोष भरा हुआ।

माधव हर सुबह नदी में स्नान करता, पर शुद्धि केवल शरीर की होती, मन की नहीं। उसे लगता कि उसका जीवन कहीं अटका हुआ है। वह मेहनत करता था, पर उसे कभी पर्याप्त नहीं लगता था। जब भी वह किसी सफल व्यक्ति के बारे में सुनता, उसके भीतर ईर्ष्या उठती। वह खुद को समझाता कि परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं, पर कहीं न कहीं वह जानता था कि जड़ उससे भी गहरी है।

एक दिन गाँव में खबर फैली कि नदी के उस पार एक अजीब-सा साधु आया है। वह न प्रवचन देता है, न चमत्कार दिखाता है। वह बस नदी के किनारे बैठता है और लोगों को देखकर मुस्कुरा देता है। कुछ लोग उसे पागल कहते, कुछ संत। माधव को इन बातों में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन एक शाम जब वह नदी किनारे बैठा था, उसकी नज़र उस साधु पर पड़ ही गई।

साधु साधारण वस्त्रों में था, बाल बिखरे हुए, और आँखों में गहरी शांति। वह नदी को देख रहा था, जैसे पहली बार देख रहा हो। माधव को न जाने क्यों गुस्सा आ गया। उसे लगा कि यह आदमी भी लोगों को भ्रम में डालने आया है। वह पास गया और थोड़े कठोर स्वर में बोला कि यूँ बैठने से जीवन नहीं बदलता। साधु ने उसकी ओर देखा और बहुत शांत स्वर में कहा कि जीवन बदलने की शुरुआत अक्सर बैठने से ही होती है।

यह उत्तर माधव को चुभ गया। वह कुछ कहना चाहता था, पर शब्द नहीं निकले। वह वहीं बैठ गया, अनचाहे ही। दोनों कुछ देर तक नदी को देखते रहे। साधु ने कोई प्रश्न नहीं पूछा, कोई उपदेश नहीं दिया। इस मौन ने माधव को असहज कर दिया। उसे पहली बार महसूस हुआ कि वह कितना बेचैन है।

अगले कई दिनों तक माधव अनजाने में उसी स्थान पर जाने लगा। साधु कभी मिलता, कभी नहीं। जब मिलता, तो बस दो-चार साधारण-सी बातें कह देता—जैसे नदी रुकती नहीं, या सूरज स्वयं को साबित नहीं करता। माधव इन बातों का अर्थ तुरंत नहीं समझ पाता, लेकिन वे उसके भीतर कहीं ठहर जातीं।

एक दिन माधव ने साधु से पूछा कि वह यहाँ क्यों बैठता है। साधु ने कहा कि वह कहीं नहीं बैठता, बस जहाँ थकान उतर जाती है, वहीं रुक जाता है। माधव को यह बात समझ नहीं आई, पर उसे पहली बार लगा कि शायद जीवन को पकड़ने की उसकी कोशिश ही उसे थका रही है।

धीरे-धीरे माधव अपने भीतर बदलाव महसूस करने लगा। उसके प्रश्न खत्म नहीं हुए थे, पर उनका बोझ कम हो गया था। वह अब अपनी तुलना दूसरों से कम करने लगा था। खेती करते समय वह मिट्टी को महसूस करता, हवा को सुनता। पहली बार उसका वर्तमान उसे भारी नहीं लग रहा था।

एक शाम साधु ने माधव से कहा कि नदी के उस पार चलो। माधव ने पूछा कि वहाँ क्या है। साधु मुस्कुराया और बोला—कुछ भी नहीं, और शायद सब कुछ। माधव ने बिना जाने क्यों हाँ कह दी।

नदी के उस पार पहुँचते ही सूरज डूब रहा था। साधु ने वहीं रुककर आँखें बंद कर लीं। माधव खड़ा रहा, उलझन में। तभी उसे एहसास हुआ कि वह पहली बार किसी उत्तर की जल्दी में नहीं है। वह बस वहाँ है।

और वहीं से माधव की वह यात्रा शुरू हुई, जो उसे कहीं और नहीं, बल्कि धीरे-धीरे स्वयं की ओर ले जा रही थी।

नदी के उस पार पहुँचने के बाद माधव को लगा जैसे उसने कोई सीमा पार कर ली हो, हालाँकि वहाँ देखने में कुछ भी अलग नहीं था। वही पेड़, वही मिट्टी, वही बहता पानी। फिर भी उसके भीतर कुछ बदल चुका था। साधु अब भी मौन था, जैसे शब्दों की कोई आवश्यकता ही न हो। माधव के मन में प्रश्न उठते रहे, पर वह उन्हें तुरंत पूछने की जल्दी में नहीं था। यह उसके लिए नया अनुभव था, क्योंकि पहले प्रश्न ही उसे बेचैन कर देते थे।

दोनों ने कुछ समय वहीं बिताया। साधु कभी आँखें बंद करके बैठता, कभी नदी की धारा में पत्थर फेंककर लहरों को देखता। एक दिन साधु ने माधव से कहा कि ध्यान से देखो, पत्थर डूब जाता है, लेकिन लहरें कुछ देर तक बनी रहती हैं। माधव को समझ नहीं आया कि इसका उससे क्या संबंध है, पर उसके भीतर यह बात कहीं ठहर गई। उसे लगा कि शायद उसकी असफलताएँ भी पत्थर जैसी हैं—डूब जाने वाली—और उनका प्रभाव ही वह लहरें हैं, जिन्हें वह अब तक पकड़े बैठा था।

माधव अब साधु के साथ अधिक समय बिताने लगा। गाँव के काम भी वह करता रहा, पर मन की कड़वाहट धीरे-धीरे कम होने लगी। वह देखता कि साधु किसी भी स्थिति में शिकायत नहीं करता। धूप हो या वर्षा, भोजन मिले या न मिले, वह वैसा ही रहता। माधव को यह बात पहले अजीब लगती थी, फिर प्रेरक लगने लगी। उसे समझ आने लगा कि शायद संतोष परिस्थितियों से नहीं, दृष्टि से आता है।

एक दिन माधव ने साहस करके अपने मन की सारी बातें साधु को बता दीं—अपनी ईर्ष्या, अपनी तुलना, अपनी असफलता का भय। साधु ने बहुत ध्यान से सुना और फिर कहा कि दुख इसलिए नहीं होता कि जीवन ने कम दिया, बल्कि इसलिए होता है कि हम जो मिला है, उसे देखने से पहले दूसरों की थाली देखने लगते हैं। यह वाक्य माधव के हृदय में गहराई तक उतर गया। उसे पहली बार अपनी ईर्ष्या पर शर्म नहीं, बल्कि समझ महसूस हुई।

साधु ने माधव को कोई नियम नहीं दिया, बस इतना कहा कि हर दिन कुछ समय नदी को देखने बैठा करो, बिना कुछ बदले। शुरुआत में माधव का मन बार-बार भटकता, पर अब वह उससे लड़ता नहीं था। वह देखता कि विचार आते हैं, जाते हैं। कुछ दिनों बाद उसे एहसास हुआ कि विचारों के बीच जो खालीपन है, वही उसे हल्का कर रहा है।

गाँव के लोग यह बदलाव महसूस करने लगे थे। माधव पहले जैसा चिड़चिड़ा नहीं रहा। वह अधिक सुनने लगा, कम प्रतिक्रिया देने लगा। कुछ लोग साधु को इसका श्रेय देते, कुछ कहते कि माधव बदल गया है। माधव खुद नहीं जानता था कि क्या बदला है, बस इतना जानता था कि अब उसे हर समय साबित करने की आवश्यकता नहीं लगती।

एक शाम साधु ने अचानक कहा कि अब वह आगे बढ़ेगा। माधव चौंक गया। उसे लगा जैसे कोई सहारा हट रहा हो। उसने पूछा कि वह क्या करे। साधु ने मुस्कुराकर कहा कि नदी वहीं रहेगी, और जो उसने देखा है, वह भी कहीं नहीं जाएगा। फिर उसने माधव के कंधे पर हाथ रखा और चुपचाप चल दिया।

माधव देर तक नदी किनारे खड़ा रहा। पहले उसे खालीपन महसूस हुआ, फिर उसी खालीपन में एक अजीब-सी स्थिरता। उसे लगा कि साधु ने कुछ छोड़ा नहीं, बल्कि कुछ जगा दिया है। वह समझने लगा कि यात्रा किसी व्यक्ति के साथ नहीं, बल्कि स्वयं के साथ होती है।

उस रात माधव ने गहरी नींद ली। पहली बार उसके सपनों में दौड़ नहीं थी, तुलना नहीं थी। केवल बहती नदी थी और उसके भीतर एक सहज स्वीकार।

और यहीं से माधव की असली परीक्षा शुरू होने वाली थी—बिना किसी साधु के, बिना किसी सहारे के।

साधु के चले जाने के बाद नदी का किनारा वही था, पर माधव के लिए वह स्थान अब अलग लगने लगा था। पहले वह वहाँ किसी की उपस्थिति में बैठता था, अब केवल अपने साथ था। शुरुआती दिनों में यह अकेलापन उसे भारी लगा। उसे बार-बार साधु की बातें याद आतीं और मन में यह विचार उठता कि काश वह अभी भी यहाँ होता। पर धीरे-धीरे माधव को एहसास होने लगा कि यही वह क्षण है, जहाँ उसे बिना किसी सहारे के खड़ा होना सीखना है।

गाँव का जीवन अपनी गति से चलता रहा। खेतों में काम, घर की जिम्मेदारियाँ और लोगों की अपेक्षाएँ—सब कुछ पहले जैसा ही था। फर्क बस इतना था कि अब माधव के भीतर एक देखने वाला जाग चुका था। जब कोई उसकी तुलना दूसरों से करता, तो पहले जैसा क्रोध नहीं उठता था। भीतर हलचल होती थी, पर वह उसमें बह नहीं जाता था। वह उस बेचैनी को देखता, जैसे नदी की सतह पर उठती लहर को देखा जाता है।

कुछ दिनों बाद गाँव में एक घटना हुई। एक बड़ा सौदा हाथ से निकल गया, जिससे माधव को आर्थिक नुकसान हुआ। पहले ऐसा होता तो वह कई रातों तक सो नहीं पाता, खुद को कोसता और दूसरों को दोष देता। इस बार भी मन में वही पुराने विचार उठे, पर अब उनके साथ एक नई स्पष्टता थी। उसे दिख रहा था कि दुख घटना से नहीं, बल्कि उसके अर्थ से पैदा हो रहा है। यह देख पाना ही उसके लिए एक बड़ी उपलब्धि थी।

वह उसी शाम नदी किनारे गया। मन अशांत था, पर वह भागा नहीं। वह बैठ गया और बस देखने लगा—अपने विचारों को, अपने डर को, अपने भीतर उठती असुरक्षा को। कुछ देर बाद उसे एहसास हुआ कि ये सब भावनाएँ हैं, और वह उनसे बड़ा है। यह अनुभव क्षणिक था, पर गहरा था। पहली बार उसे लगा कि शांति कोई स्थायी अवस्था नहीं, बल्कि बार-बार लौटने की क्षमता है।

गाँव के कुछ लोग माधव के पास आने लगे। कोई अपनी परेशानी बताने, कोई सलाह लेने। माधव हैरान था, क्योंकि वह खुद को किसी योग्य स्थान पर नहीं देखता था। वह बस सुनता था। और कई बार, केवल सुन लेने से ही सामने वाले का मन हल्का हो जाता। माधव को समझ में आने लगा कि साधु ने जो किया था, वही वह अनजाने में कर रहा है—कुछ जोड़े बिना, बस उपस्थित रहकर।

एक दिन माधव को लगा कि वह फिर से पुराने ढर्रे में फिसल रहा है। मन में गर्व आने लगा कि वह अब दूसरों से शांत है, समझदार है। यह अहसास होते ही वह ठहर गया। उसे साधु की एक बात याद आई—अहंकार अक्सर सबसे शांत रूप में लौटता है। उस दिन माधव ने पहली बार समझा कि जागरूकता भी लगातार सजगता माँगती है।

समय के साथ माधव का संबंध नदी से और गहरा हो गया। वह उसे किसी प्रतीक की तरह नहीं, बल्कि एक जीवित शिक्षक की तरह देखने लगा। नदी उसे सिखाती थी कि बहते रहो, अटको मत; स्वीकार करो, पर जड़ मत बनो। जब जीवन में कुछ अच्छा होता, वह कृतज्ञ रहता; जब कुछ कठिन आता, वह उसे भी बहने देता।

एक शाम, बहुत दिनों बाद, माधव ने महसूस किया कि उसे साधु की याद अब कमी की तरह नहीं लगती। वह कृतज्ञता की तरह महसूस होती थी। उसे समझ में आया कि साधु का जाना कोई खालीपन नहीं छोड़ गया था, बल्कि एक जिम्मेदारी छोड़ गया था—स्वयं के प्रति ईमानदार रहने की।

माधव अब भी वही युवक था, वही खेत, वही गाँव, वही साधारण जीवन। पर भीतर कुछ मौलिक बदल चुका था। वह अब अपने जीवन से भाग नहीं रहा था, न ही उसे किसी और जैसा बनाना चाहता था। वह उसे समझ रहा था, क्षण-क्षण।

और शायद यही वह मोड़ था, जहाँ कहानी किसी चमत्कार से नहीं, बल्कि एक शांत स्थिरता से आगे बढ़ने वाली थी।

समय के साथ माधव के जीवन में बाहरी रूप से कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया, पर भीतर की स्पष्टता अब गहरी हो चुकी थी। वह जान चुका था कि शांति किसी विशेष स्थिति पर निर्भर नहीं करती। फिर भी जीवन अपनी परीक्षा लेने से नहीं चूकता। एक वर्ष वर्षा असमय हुई और फसल को भारी नुकसान पहुँचा। गाँव के कई लोग टूट गए। भय, क्रोध और असहायता चारों ओर फैलने लगी। माधव भी इस नुकसान से अछूता नहीं था। उसके सामने अपने परिवार की जिम्मेदारी थी और भविष्य की अनिश्चितता थी।

पहली रात उसे नींद नहीं आई। पुराने डर फिर से सिर उठाने लगे। मन में वही प्रश्न लौट आए—अब क्या होगा, कैसे चलेगा, क्या यह सब व्यर्थ था। लेकिन इस बार माधव ने इन प्रश्नों से भागने की कोशिश नहीं की। वह जानता था कि यही वह क्षण है, जहाँ उसकी समझ केवल विचार नहीं, बल्कि जीने की कसौटी पर है। अगली सुबह वह नदी किनारे गया, लेकिन समाधान खोजने नहीं, बल्कि सच्चाई के साथ बैठने के लिए।

नदी उसी तरह बह रही थी, जैसे हर दिन बहती थी। न उसे फसल का ज्ञान था, न मानव की चिंता का। माधव को पहली बार यह बात भीतर तक महसूस हुई कि जीवन व्यक्तिगत नहीं है। दुख व्यक्तिगत लगता है, क्योंकि हम स्वयं को केंद्र में रख लेते हैं। यह बोध कठोर नहीं था, बल्कि मुक्त करने वाला था। उसे लगा कि वह अकेला नहीं है, बल्कि उसी प्रवाह का हिस्सा है, जिसमें सब कुछ आता-जाता है।

गाँव में लोगों ने मिलकर चर्चा शुरू की। कुछ ने शहर जाने की बात कही, कुछ ने सहायता माँगने की। पहले माधव ऐसे समय में या तो चुप हो जाता या बहस में उलझ जाता। इस बार उसने केवल एक बात कही कि डर में लिया गया निर्णय अक्सर और पीड़ा लाता है। उसकी आवाज़ में कोई दावा नहीं था, केवल अनुभव की सादगी थी। लोगों ने पहली बार उसे ध्यान से सुना।

माधव ने पहल की कि सब मिलकर जो भी साधन हैं, उन्हें साझा किया जाए। यह कोई महान योजना नहीं थी, बस एक सहज कदम था। धीरे-धीरे लोग साथ आने लगे। किसी ने अनाज दिया, किसी ने श्रम। कठिनाई पूरी तरह समाप्त नहीं हुई, पर उसका बोझ बँट गया। माधव ने महसूस किया कि जब मन अलगाव से बाहर आता है, तो समाधान अपने आप आकार लेने लगते हैं।

इन्हीं दिनों एक व्यक्ति गाँव में आया, जो साधु को जानता था। उसने माधव को देखा और कुछ क्षण ठहरकर कहा कि वही दृष्टि उसने वर्षों पहले उस साधु की आँखों में देखी थी। यह सुनकर माधव के भीतर हल्की-सी लहर उठी, पर वह उसमें बहा नहीं। उसे अब समझ आ गया था कि तुलना चाहे संत से हो या साधारण मनुष्य से, वह फिर भी तुलना ही है।

एक शाम, जब गाँव अपेक्षाकृत शांत था, माधव अकेला नदी किनारे बैठा था। उसे किसी विशेष अनुभव की प्रतीक्षा नहीं थी। तभी उसे स्पष्ट रूप से यह बोध हुआ कि वह अब अपने जीवन से लड़ नहीं रहा है। वह न उसे बदलने की जल्दी में है, न उससे भागने की। यह बोध किसी उत्साह की तरह नहीं आया, बल्कि एक शांत स्थिरता की तरह उतरा।

उस रात माधव ने साधु को स्वप्न में नहीं देखा, न किसी संकेत की प्रतीक्षा की। उसने बस गहरी नींद ली। सुबह उठकर उसे लगा कि कुछ पूरा हो गया है, और साथ ही सब कुछ वैसे ही चल रहा है। यह विरोधाभास नहीं था, बल्कि परिपक्वता थी।

गाँव के लोग अब उसे अलग नज़र से देखने लगे थे, पर माधव भीतर से वही साधारण व्यक्ति बना रहा। वह जानता था कि जिस क्षण वह किसी भूमिका में बँध गया, उसी क्षण यात्रा रुक जाएगी। वह खेत में काम करता, बच्चों के साथ हँसता, और कठिन समय में लोगों के साथ खड़ा रहता।

माधव की कहानी किसी चमत्कार पर समाप्त नहीं हुई। न उसने संसार छोड़ा, न संसार ने उसे कोई विशेष स्थान दिया। पर उसने वह पा लिया था, जो उसने कभी बाहर ढूँढा था—अपने साथ शांति से रहने की क्षमता। और शायद यही वह अंत नहीं, बल्कि वह शुरुआत थी, जो शब्दों से परे थी।

समय बहता रहा, और नदी की धारा की तरह गाँव का जीवन भी चलता रहा। माधव अब वही व्यक्ति था, जो कभी बेचैन, असंतोष और भय से घिरा रहता था। पर भीतर वह एक स्थिरता का अनुभव कर चुका था, जिसे शब्दों में बाँध पाना कठिन था। वह जान गया था कि जीवन की परीक्षा केवल बाहरी परिस्थितियों में नहीं, बल्कि अपने भीतर शांति बनाए रखने में है।

गाँव के लोग अक्सर उससे पूछते—तुमने कैसे यह सब सीखा? माधव मुस्कुराता और कहता कि यह कोई शिक्षा नहीं है, केवल देखना और स्वीकार करना है। जब मन बहकता है, उसे बस देखा जाना चाहिए। जब भय आता है, उसे बस देखा जाना चाहिए। जीवन स्वयं ही प्रवाह में हल हो जाता है, यदि हम उसे पकड़ने की कोशिश न करें।

वह नदी के किनारे कई बार बैठता, और बच्चों को वह केवल यह दिखाता कि पानी बहता रहता है, पेड़ हिलता है, और सूरज उठता है। इससे बड़ा कोई पाठ नहीं था। कोई गुरु, कोई मंत्र, कोई अनुष्ठान नहीं। केवल वर्तमान में पूर्ण उपस्थिति।

एक दिन, बहुत वर्षों बाद, गाँव में एक नया युवक आया, जो खुद को अधूरा और असंतुष्ट महसूस करता था। वह नदी किनारे बैठा और माधव को देखकर रुका। माधव ने बस मुस्कुराया। कोई शब्द नहीं, कोई उपदेश नहीं। केवल उपस्थित होना ही पर्याप्त था। उसी मौन में, वही समझ, वही गहरी शांति, नए युवक के भीतर धीरे-धीरे अंकुरित होने लगी।

यही माधव की असली विरासत थी। वह न केवल स्वयं को शांति दे पाया, बल्कि दूसरों को भी यह अनुभव करने का अवसर प्रदान करता रहा। यह कोई बड़ा चमत्कार नहीं था, कोई बड़ा परिश्रम भी नहीं। केवल जीवन के बहाव के साथ-साथ स्वयं को समझना, स्वीकार करना और दूसरों के साथ मौन में खड़ा रहना—यही उसकी साधना थी।

और इस तरह, कहानी समाप्त नहीं होती। वह हर उस व्यक्ति के भीतर धीरे-धीरे आगे बढ़ती रहती है, जो रुककर देखता है, जो स्वयं के भीतर झाँकने का साहस रखता है। क्योंकि सत्य, शांति और संतुलन किसी व्यक्ति, समय या स्थान तक सीमित नहीं हैं। वे केवल अनुभव किए जा सकते हैं, और अनुभव होते ही जीवन को स्थिर और पूर्ण बना देते हैं।

Comments

Popular posts from this blog

शादी, शरारत और रसगुल्ले: सोनू–प्रीति का सफ़र

यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक (fictional) है।  सोनू, प्रीति और इसमें वर्णित सभी व्यक्ति, घटनाएँ, स्थान और परिस्थितियाँ कल्पना पर आधारित हैं ।  इसमें किसी वास्तविक व्यक्ति, परिवार या घटना से कोई संबंध नहीं है।  कहानी का उद्देश्य केवल मनोरंजन और रचनात्मकता है।  30 नवंबर की रात थी—भव्य सजावट, ढोल का धमाका, चूड़ियों की खनखनाहट और रिश्तेदारों की भीड़। यही थी सोनू के बड़े भाई की शादी। प्रीति अपनी मौसी के परिवार के साथ आई थी। दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे… अभी तक। 🌸 पहली मुलाक़ात – वरमाला के मंच पर वरमाला का शूम्बर शुरू हुआ था। दूल्हा-दुल्हन स्टेज पर खड़े थे, और सभी लोग उनके इर्द-गिर्द फोटो लेने में जुटे थे। सोनू फोटोग्राफर के पास खड़ा था। तभी एक लड़की उसके बगल में फ्रेम में आ गई—हल्का गुलाबी लहँगा, पोनीटेल, और क्यूट सी घबराहट। प्रीति। भीड़ में उसका दुपट्टा फूलों की वायर में फँस गया। सोनू ने तुरंत आगे बढ़कर दुपट्टा छुड़ा दिया। प्रीति ने धीमे, शर्माए-सजाए अंदाज़ में कहा— “थैंक यू… वरना मैं भी वरमाला के साथ स्टेज पर चढ़ जाती!” सोनू ने पहली बार किसी शादी में...

डिजिटल बाबा और चिकन बिरयानी का कनेक्शन

  गाँव के लोग हमेशा अपने पुराने रिवाज़ों और पारंपरिक जीवन में व्यस्त रहते थे। सुबह उठते ही हर कोई खेत में या मंदिर में निकल जाता, और मोबाइल का नाम सुनना भी दूर की बात थी। लेकिन एक दिन गाँव में कुछ अलग हुआ। सुबह-सुबह गाँव की चौपाल पर एक आदमी पहुँचा। वो साधारण दिखता था, लंबा कुर्ता और सफेद दाढ़ी, लेकिन उसके हाथ में मोबाइल और ईयरफोन थे। गाँव वाले धीरे-धीरे इकट्ठा हो गए। गोलू ने धीरे से पप्पू से कहा, “ये कौन है, बाबा या कोई नया टीचर?” पप्पू बोला, “देखो तो सही, वीडियो कॉल पर किसी से बात कर रहे हैं।” डिजिटल बाबा ने सभी को देखकर हाथ हिलाया और बोला, “नमस्ते बच्चों! मैं डिजिटल बाबा हूँ। मैं आपको जीवन के हर रहस्य की जानकारी ऐप्स और सोशल मीडिया से दूँगा!” गाँव वाले थोड़े चौंके। पंडितजी शर्मा ने फुसफुसाते हुए कहा, “मोबाइल वाले संत? ये तो नई बात है।” बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां पंडितजी, अब ज्ञान केवल मंदिर में नहीं मिलता, बल्कि इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब पर भी मिलता है।” गोलू और पप्पू तो बेसब्र हो गए। उन्होंने तुरंत अपने मोबाइल निकालकर बाबा का लाइव वीडियो रिकॉर्ड करना शुरू क...

“दीपों का गाँव” — एक प्रेरक ग्रामीण कथा

  अरावली की तलहटी में बसे किशनपुर गाँव का सूरज किसी और जगह से थोड़ा अलग उगता था। क्यों? क्योंकि इस गाँव के लोग मानते थे कि हर दिन की पहली किरण उम्मीद, प्रेम और मेहनत का संदेश लेकर आती है। पर यह मान्यता हर किसी की नहीं थी—कम-से-कम गाँव के एक हिस्से की तो बिल्कुल भी नहीं। किशनपुर के दो हिस्से थे— ऊपरवाड़ा और नीचेवाला मोहल्ला । ऊपरवाड़ा समृद्ध था, वहीं नीचेवाला मोहल्ला गरीब। इस आर्थिक और सामाजिक दूरी ने गाँव में कई कड़वाहटें भरी थीं। पर इन्हीं सबके बीच जन्मा था दीपक , एक 14 वर्षीय लड़का, जिसकी आँखों में चमक थी, और जिसका दिल गाँव से भी बड़ा था। दीपक नीचे वाले मोहल्ले का था। उसका पिता, हरिलाल, गाँव का एकमात्र मोची था। माँ खेतों में मजदूरी करती थी। गरीबी के बावजूद दीपक पढ़ना चाहता था। उसका सपना था—गाँव के बच्चों के लिए एक ऐसी जगह बनाना जहाँ हर बच्चा पढ़ सके। किशनपुर में एक ही स्कूल था— सरकारी प्राथमिक विद्यालय । छोटा सा, जर्जर कमरों वाला स्कूल। लेकिन बच्चों के सपने बड़े थे। समस्या यह थी कि ऊपरवाड़े के लोग चाहते थे कि उनके बच्चे अलग बैठें। वे गरीब बच्चों के साथ पढ़ाना पसंद नहीं करत...