Skip to main content

अंधकार के बाद उजाला

सिया एक छोटे शहर में जन्मी थी , जहाँ हर घर में सीमित संसाधन और छोटे सपने ही रहते थे। उसके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे , जो अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त रहते और अक्सर थके हुए घर लौटते , जबकि माँ घर संभालती और छोटी-छोटी खुशियों को जुटाने की कोशिश करतीं। बचपन से ही सिया ने गरीबी और संघर्ष को बहुत करीब से महसूस किया था। स्कूल में उसके पास सही किताबें या नए कपड़े नहीं होते थे , और अक्सर बच्चे उसका मजाक उड़ाते थे , लेकिन सिया हमेशा चुप रहती , अपने दिल में छोटे-छोटे सपनों को पनपाती। उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी , जो उसके भीतर छुपी उम्मीद और आत्मविश्वास को दर्शाती थी। समय बीतता गया और सिया के पिता की तबीयत अचानक बिगड़ गई। परिवार पर आर्थिक दबाव बढ़ गया , और सिया को समझना पड़ा कि अब वह केवल अपनी पढ़ाई तक ही सीमित नहीं रह सकती , बल्कि घर के लिए भी जिम्मेदारियों को उठाना होगा। कई बार उसने स्कूल छोड़कर काम करने का सोचा , लेकिन माँ ने उसकी किताबों को गले लगाकर कहा , “ सिया , अगर तुम पढ़ाई छोड़ दोगी तो हमारे सपने भी अधूरे रह जाएंगे।” उस दिन सिया ने पहली बार अपने भीतर एक अडिग संकल्प महसूस किया। ...

“परछाइयों का उत्तराधिकारी”

 

दिल्ली की सुबहें हमेशा झूठी होती हैं। वे उजाले का वादा तो करती हैं, लेकिन अपने भीतर रात के सारे राज़ छिपाए रखती हैं। आरव सिंह यह बात अच्छी तरह जानता था। वह अपनी बालकनी में खड़ा नीचे बहती ट्रैफिक की आवाज़ सुन रहा था—कारों के हॉर्न, चायवालों की पुकार, और अख़बारों की चरमराहट—सब कुछ सामान्य, फिर भी असहज। ब्लैक सन और किंगमेकर की घटनाओं के बाद उसने खुद को परछाइयों से दूर रखने की कोशिश की थी, लेकिन कुछ ज़िंदगियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें अंधेरे छोड़ते नहीं, वे अंधेरे को अपने भीतर ढोती हैं। आरव अब किसी एजेंसी का हिस्सा नहीं था, फिर भी उसकी आदतें नहीं बदली थीं—हर आवाज़ का विश्लेषण, हर चेहरे का मूल्यांकन, और हर शांति पर संदेह।

उस सुबह मीरा क़ाज़ी का संदेश आया, और उसी पल आरव को समझ आ गया कि यह दिन सामान्य नहीं रहेगा। मीरा अब सिर्फ़ पत्रकार नहीं थी; वह उन लोगों की सूची में आ चुकी थी जिनसे सत्ता डरती है। उसका संदेश छोटा था, लेकिन भारी—“मुझे कुछ मिला है। इस बार बात सिर्फ़ नेटवर्क की नहीं, विरासत की है।” आरव ने जवाब नहीं दिया, क्योंकि कुछ संदेशों का जवाब शब्दों में नहीं दिया जाता, उन्हें सामने जाकर सुना जाता है। कुछ ही घंटों में वह मीरा के अपार्टमेंट में था, जहाँ दीवारों पर किताबें और फाइलें एक साथ बिखरी हुई थीं—ज्ञान और डर का मिला-जुला दृश्य।

मीरा ने जो दस्तावेज़ दिखाए, वे किसी एक देश से जुड़े नहीं थे। यह सत्ता की एक लंबी छाया थी, जो दशकों से अलग-अलग सरकारों, सैन्य तख़्तापलटों और आर्थिक संकटों के पीछे मौजूद थी। फर्क सिर्फ़ इतना था कि अब इस छाया का एक नाम उभर रहा था—“उत्तराधिकारी।” किंगमेकर तो बस एक चरण था; असली खेल उसके बाद शुरू हुआ था। उत्तराधिकारी कोई एक व्यक्ति नहीं था, बल्कि एक चयन प्रक्रिया थी—जो तय करती थी कि अगली पीढ़ी में सत्ता किसके हाथों में जाएगी। यह राजनीति नहीं थी, यह भविष्य की नीलामी थी।

आरव को एहसास हुआ कि यह लड़ाई पिछली सभी लड़ाइयों से अलग है। यहाँ दुश्मन गोली नहीं चलाता था, वह करियर बनाता था, चेहरे गढ़ता था और नैरेटिव लिखता था। जांच का पहला ठोस सिरा उसे लंदन ले गया—एक ऐसा शहर जो बाहर से सभ्य दिखता है, लेकिन भीतर से साम्राज्यों के पाप ढोता है। लंदन में आरव एक थिंक-टैंक के कॉन्फ़्रेंस में शामिल हुआ, जहाँ भविष्य के नेता, नीति निर्माता और कॉरपोरेट वारिस इकट्ठा हुए थे। वहीं उसे पहली बार महसूस हुआ कि उत्तराधिकारी की प्रयोगशाला यहीं है—जहाँ सत्ता के बीज बोए जाते हैं।

उसी सम्मेलन में उसकी नज़र एक युवा भारतीय चेहरे पर पड़ी—अद्वैत मल्होत्रा। तेज़ दिमाग़, संतुलित भाषा और मीडिया का प्रिय चेहरा। बाहर से वह एक उभरता हुआ विचारक था, लेकिन आरव की नज़र में वह एक परियोजना था। जैसे-जैसे आरव ने अद्वैत की पृष्ठभूमि खंगाली, परतें खुलने लगीं—अंतरराष्ट्रीय फंडिंग, गुप्त मेंटरशिप और रणनीतिक मीडिया कवरेज। यह सब संयोग नहीं था। यह उत्तराधिकारी का अगला दांव था।

आरव ने जब मीरा को यह बताया, तो वह चुप रही। फिर बोली, “अगर तुम सही हो, तो हम किसी व्यक्ति के खिलाफ़ नहीं लड़ रहे, हम एक भविष्य के खिलाफ़ लड़ रहे हैं।” यही बात इस मिशन को सबसे खतरनाक बनाती थी। इस बार अगर वे हारते, तो कोई विस्फोट नहीं होता, कोई आपातकाल नहीं लगता—बस धीरे-धीरे सब कुछ बदल जाता, और लोग समझ भी नहीं पाते कि कब उनका चुनाव उनसे छीन लिया गया।

जांच आगे बढ़ी और सुराग पेरिस, जिनेवा और नई दिल्ली तक फैले। आरव को हर जगह वही पैटर्न दिखा—एक ही सोच, अलग-अलग चेहरे। इसी बीच मीरा को धमकियाँ मिलने लगीं, इस बार छुपी हुई नहीं, बल्कि खुली हुई। यह साफ़ था कि उत्तराधिकारी जान चुका था कि कोई उसकी प्रक्रिया को देख रहा है। एक रात मीरा पर हमला हुआ—कोई हथियार नहीं, कोई गोली नहीं—सिर्फ़ एक दुर्घटना जिसे मीडिया “दुर्भाग्यपूर्ण” कहकर भूल जाता। आरव ने समय रहते उसे बचा लिया, लेकिन यह चेतावनी थी कि अगली बार समय नहीं मिलेगा।

आरव के भीतर वर्षों से दबा हुआ जासूस पूरी तरह जाग चुका था। उसने तय कर लिया कि इस बार वह सिर्फ़ सच उजागर नहीं करेगा, बल्कि इस चयन प्रक्रिया की जड़ काटेगा। उसे पता था कि ऐसा करने का मतलब होगा—हमेशा के लिए परछाइयों में लौट जाना। लेकिन कुछ युद्ध ऐसे होते हैं जिन्हें जीतने के बाद कोई घर नहीं लौटता, सिर्फ़ इतिहास का बोझ उठाता है।

दिल्ली लौटते समय विमान की खिड़की से नीचे झांकते हुए आरव ने शहर को देखा—लाखों ज़िंदगियाँ, अनगिनत सपने, और कुछ गिने-चुने लोग जो तय करते हैं कि ये सपने किस दिशा में जाएँगे। उसने अपनी मुट्ठी भींच ली। यह लड़ाई अब सिर्फ़ उसकी या मीरा की नहीं थी। यह उस अधिकार की लड़ाई थी जिसे लोग अक्सर बिना सवाल किए सौंप देते हैं—अपना भविष्य।

और खेल अब शुरू हुआ था।

आरव जानता था कि असली लड़ाइयाँ बंद कमरों में नहीं, बल्कि खुले मंचों पर लड़ी जाती हैं, जहाँ सब कुछ पारदर्शी दिखता है, लेकिन असल खेल परदे के पीछे चलता है। दिल्ली लौटने के बाद उसने खुद को फिर से एक आम नागरिक की तरह ढाल लिया, लेकिन उसकी रातें अब और भी लंबी हो गई थीं। हर भाषण, हर टीवी डिबेट और हर अख़बार की हेडलाइन उसे किसी न किसी तरह एक ही दिशा में जाती दिख रही थी। विचारों का एक नया प्रवाह गढ़ा जा रहा था—राष्ट्रवाद, विकास और स्थिरता के नाम पर भविष्य की एक ऐसी परिकल्पना तैयार की जा रही थी, जिसमें सवाल पूछने की जगह बहुत कम थी। आरव समझ चुका था कि “उत्तराधिकारी” अब परदे के पीछे नहीं, बल्कि मंच के बीचों-बीच आ चुका है।

मीरा अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुई थी, लेकिन उसका दिमाग़ पहले से भी तेज़ चल रहा था। अस्पताल के कमरे में बैठे हुए उसने आरव को दिखाया कि कैसे एक ही तरह के लेख, शोध-पत्र और सोशल मीडिया अभियान अलग-अलग देशों में एक साथ उभर रहे हैं। शब्द बदल जाते थे, चेहरे बदल जाते थे, लेकिन मूल विचार वही रहता था। यह किसी पार्टी या विचारधारा का प्रचार नहीं था, यह एक ऐसा ढांचा था जो आने वाली पीढ़ियों की सोच को आकार दे रहा था। आरव को पहली बार एहसास हुआ कि अगर यह प्रक्रिया पूरी हो गई, तो कोई तानाशाह नहीं आएगा, कोई तख़्तापलट नहीं होगा—सब कुछ लोकतांत्रिक दिखेगा, लेकिन विकल्प सिर्फ़ वही होंगे जो पहले से चुने जा चुके हैं।

जांच करते हुए आरव एक ऐसे नाम तक पहुँचा, जिसे वह वर्षों से दफन समझता था—विक्रम राठौड़। वही विक्रम, जो कभी अग्निचक्र में उसका मेंटर हुआ करता था, जिसे वह एक आदर्श अधिकारी मानता था, और जिसकी मौत को उसने हमेशा व्यवस्था की एक क्रूर लेकिन अनिवार्य त्रासदी समझा था। अब पुराने रिकॉर्ड्स से पता चला कि विक्रम मरा नहीं था, बल्कि गायब कर दिया गया था। और उसके बाद ही उत्तराधिकारी की पहली प्रयोगशाला अस्तित्व में आई थी। यह संयोग नहीं हो सकता था।

आरव ने विक्रम की पुरानी फ़ाइलें दोबारा पढ़ीं। हर मिशन, हर निर्णय और हर असहमति एक ही ओर इशारा कर रही थी। विक्रम सिस्टम से लड़ना नहीं चाहता था, वह उसे अपने तरीके से चलाना चाहता था—बिना अराजकता के, बिना विद्रोह के। यही सोच उत्तराधिकारी की नींव बनी थी। यह जानकर आरव के भीतर कुछ टूट गया। जिन आदर्शों पर उसने अपनी ज़िंदगी खड़ी की थी, वही अब एक नए नियंत्रण तंत्र की बुनियाद बन चुके थे।

इसी बीच अद्वैत मल्होत्रा का नाम लगातार सुर्खियों में रहने लगा। टीवी स्टूडियो, विश्वविद्यालयों के मंच और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन—हर जगह वही चेहरा, वही संतुलित भाषा, वही स्वीकार्य विद्रोह। वह किसी से टकराता नहीं था, लेकिन हर बहस को अपनी दिशा में मोड़ देता था। आरव ने जितना उसे देखा, उतना ही उसे यक़ीन होता गया कि अद्वैत खुद नहीं जानता कि वह किसी योजना का हिस्सा है या नहीं। शायद वह भी एक चुना हुआ उत्तराधिकारी था, जिसे सच से उतना ही दूर रखा गया था जितना आम जनता को।

मीरा ने चेतावनी दी कि अब बहुत देर हो रही है। उत्तराधिकारी की प्रक्रिया सार्वजनिक समर्थन के उस मुकाम पर पहुँच रही थी, जहाँ उसे रोकना लगभग असंभव हो जाएगा। आरव के पास दो ही रास्ते थे—या तो वह सारी जानकारी एक साथ सार्वजनिक कर दे, जिससे अराजकता फैल सकती थी, या फिर वह इस ढांचे के केंद्र तक पहुँचे और उसे भीतर से तोड़े। दोनों ही रास्तों में कीमत थी, और कीमत सिर्फ़ उसकी जान नहीं, बल्कि सच्चाई की विश्वसनीयता भी हो सकती थी।

आख़िरकार आरव ने दूसरा रास्ता चुना। उसने उत्तराधिकारी की चयन परिषद तक पहुँचने का तरीका ढूँढ लिया—जिनेवा में होने वाली एक बंद बैठक, जहाँ अगली वैश्विक रणनीति तय होनी थी। यह कोई गुप्त बैठक नहीं थी, बल्कि एक “नीति संवाद” था, जिसे मीडिया प्रगति का उदाहरण बताने वाला था। आरव जानता था कि यहीं वह सबूत मिल सकता है, जो इस पूरे खेल को उजागर कर दे।

जिनेवा की ठंडी हवा में खड़े होकर आरव ने पहली बार अपने भीतर डर को पूरी तरह स्वीकार किया। यह डर मरने का नहीं था, बल्कि असफल होने का था। अगर वह यहाँ हार गया, तो आने वाली पीढ़ियाँ शायद कभी यह न जान पाएं कि उनके विकल्प पहले ही तय कर दिए गए थे। मीरा ने उसे जाते समय सिर्फ़ इतना कहा था कि अगर वह वापस न आए, तो कहानी वह पूरी करेगी। आरव मुस्कराया था, क्योंकि वह जानता था—कहानियाँ लोग लिखते हैं, लेकिन कुछ कहानियाँ लोग जीते हैं।

सम्मेलन भवन के भीतर सब कुछ शांत और सभ्य था। सूट पहने लोग, धीमी आवाज़ में बातचीत और भविष्य पर गंभीर चर्चा। लेकिन आरव को अब साफ़ दिख रहा था कि यह सभ्यता एक आवरण है। उसने जैसे ही आंतरिक नेटवर्क तक पहुँच बनाई, उसे वह मिला जिसकी उसे तलाश थी—एक पूरा एल्गोरिदम, जो बताता था कि किस देश में किस तरह का नेतृत्व “उपयुक्त” होगा। यह लोकतंत्र नहीं था, यह चयनित सहमति थी।

उसी पल आरव को महसूस हुआ कि वह अकेला नहीं है। कोई और भी सिस्टम में हलचल महसूस कर चुका था। यह उत्तराधिकारी की सुरक्षा परत थी, जो अब सक्रिय हो चुकी थी। समय खत्म हो रहा था। या तो वह अभी सब कुछ उजागर करेगा, या फिर यह मौका हमेशा के लिए खो जाएगा।

आरव ने गहरी साँस ली और फैसला कर लिया।

अब पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं था।

जिनेवा की रात घनी और खामोश थी, लेकिन आरव के भीतर तूफ़ान चल रहा था। वह उस विशाल भवन में अकेला नहीं था, जहां दुनिया के सबसे प्रभावशाली लोग एक जगह इकट्ठा हुए थे। उनके बीच से होकर आरव ने धीरे-धीरे वह मार्ग तय किया जो उसे सीधे नेटवर्क के केंद्रीय सर्वर तक ले जाता। हर कदम पर उसे एहसास होता रहा कि यह लड़ाई सिर्फ़ तकनीकी या राजनीतिक नहीं थी—यह मन और विश्वास की लड़ाई थी। हर व्यक्ति यहाँ जानता था कि कुछ निर्णय दुनिया की दिशा बदल सकते हैं, लेकिन कोई यह नहीं जानता था कि उनके पीछे कौन है जो असली दिशा तय करता है। आरव की निगाहें कंप्यूटर स्क्रीन पर टिक गईं—सारे डेटा का विश्लेषण, निर्णयों की भविष्यवाणी, नेताओं के चुनाव और मीडिया अभियान—सब कुछ एक साथ उसके सामने खुला था। यही वह शक्ति थी, जिसे उत्तराधिकारी ने इतने सालों से छिपाए रखा था।

जैसे ही आरव ने अपनी योजना के अनुसार वायरस को नेटवर्क में डालना शुरू किया, उसे एहसास हुआ कि सिस्टम केवल मशीनें नहीं हैं; यह लोगों की आदतों, उनके भय और उनकी उम्मीदों का प्रतिबिंब है। यदि यह टूट गया, तो केवल सत्ता का खेल नहीं बिगड़ेगा, बल्कि लाखों लोग अस्थिरता का सामना करेंगे। यही आरव की सबसे बड़ी चुनौती थी—सच्चाई को उजागर करना, लेकिन बिना अराजकता पैदा किए। उसी समय मीरा का नाम उसके दिमाग़ में आया। उसने तुरंत हेलिकॉप्टर से मीरा को अपडेट किया। मीरा की आवाज़ में डर नहीं, बल्कि साहस था। उसने कहा कि अगर वह सफल होता है, तो दुनिया को जानने का हक़ मिलेगा कि विकल्प पहले से तय किए गए थे। आरव ने सिर हिलाया और आगे बढ़ा।

अचानक स्क्रीन पर चेतावनी चमकी—किंगमेकर के कुछ बची हुई शाखाओं ने नेटवर्क को सुरक्षित करने की कोशिश शुरू कर दी थी। आरव ने तुरंत सभी गुप्त सुरंगों और बैक-अप सिस्टम का विश्लेषण किया और पता लगाया कि मुख्य सर्वर से कनेक्शन काटना ही एकमात्र उपाय था। उसे एहसास हुआ कि अब इस लड़ाई का परिणाम केवल उसके कौशल और साहस पर निर्भर करेगा। बिना किसी समय गंवाए, उसने सभी बैक-अप सिस्टम पर नियंत्रण ले लिया और अंततः नेटवर्क को निष्क्रिय किया।

लेकिन तभी उसे एक और सच्चाई का सामना करना पड़ा—अद्वैत मल्होत्रा, जिसे वह सिर्फ़ एक मासूम मोहरा समझ रहा था, वह खुद भी चयन प्रक्रिया का हिस्सा था। उसे किसी ने चेतावनी दी थी कि अद्वैत को भी सुरक्षित निकालना होगा, नहीं तो उसकी मौत पूरे मिशन को विफल कर देगी। आरव ने अपनी योजना तुरंत बदली। उसने अद्वैत को सुरक्षित स्थान पर ले जाकर नेटवर्क से बाहर किया, और स्वयं रह गया। इस दौरान कुछ सुरक्षा कर्मियों ने उन्हें पहचान लिया, लेकिन आरव की परछाई की तरह हल्की चाल ने उसे पकड़ने से रोक दिया।

अगली सुबह, जब सूरज की पहली किरणें शहर पर पड़ीं, आरव और मीरा एक सुरक्षित स्थान पर खड़े थे। बाहर दुनिया सामान्य लग रही थी—कारें, लोग, बच्चे खेल रहे थे—लेकिन अब सब कुछ बदल चुका था। मीरा ने अपनी रिपोर्ट लिखना शुरू किया, जिसमें न केवल उत्तराधिकारी की प्रक्रिया का खुलासा था, बल्कि यह भी बताया गया कि कैसे शक्तियाँ कभी दिखती नहीं हैं, लेकिन दुनिया को नियंत्रित करती हैं। यह रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद राजनीतिक हलचल मची, लेकिन आरव और मीरा जानते थे कि अब सब कुछ जनता की समझ पर निर्भर था।

आरव ने उस क्षण महसूस किया कि लड़ाई समाप्त नहीं हुई थी। सत्ता हमेशा बनी रहेगी, परछाइयाँ हमेशा रहेंगी और जासूस हमेशा सक्रिय रहेंगे। उसने देखा कि अद्वैत भी अपनी राह पर जा चुका था, और अब खुद निर्णय लेने लगेगा। मीरा ने उसे देखा और मुस्कराई—उनकी आंखों में थकान थी, लेकिन संतोष भी। वह जानते थे कि उन्होंने इतिहास की एक कड़ी को उजागर किया था, और अब बाकी दुनिया उस सच्चाई का सामना करेगी।

दिल्ली लौटकर आरव फिर उसी बालकनी में खड़ा था। शहर चल रहा था, लोग अपनी दुनिया में व्यस्त थे, लेकिन उसकी नजरें ऊपर आसमान की ओर थीं। उसके हाथ में अब कोई हथियार नहीं था, केवल तथ्य और सच्चाई का बोझ। वह जानता था कि एक दिन फिर परछाइयाँ आएंगी, और एक नया खेल शुरू होगा। लेकिन अब वह तैयार था। उसने कोट की कॉलर ठीक की, गहरी सांस ली और अंधेरी गलियों की ओर बढ़ गया। शांति अस्थायी हो सकती थी, लेकिन साहस और सच की कीमत स्थायी रहती है।

 

 

Comments

Popular posts from this blog

शादी, शरारत और रसगुल्ले: सोनू–प्रीति का सफ़र

यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक (fictional) है।  सोनू, प्रीति और इसमें वर्णित सभी व्यक्ति, घटनाएँ, स्थान और परिस्थितियाँ कल्पना पर आधारित हैं ।  इसमें किसी वास्तविक व्यक्ति, परिवार या घटना से कोई संबंध नहीं है।  कहानी का उद्देश्य केवल मनोरंजन और रचनात्मकता है।  30 नवंबर की रात थी—भव्य सजावट, ढोल का धमाका, चूड़ियों की खनखनाहट और रिश्तेदारों की भीड़। यही थी सोनू के बड़े भाई की शादी। प्रीति अपनी मौसी के परिवार के साथ आई थी। दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे… अभी तक। 🌸 पहली मुलाक़ात – वरमाला के मंच पर वरमाला का शूम्बर शुरू हुआ था। दूल्हा-दुल्हन स्टेज पर खड़े थे, और सभी लोग उनके इर्द-गिर्द फोटो लेने में जुटे थे। सोनू फोटोग्राफर के पास खड़ा था। तभी एक लड़की उसके बगल में फ्रेम में आ गई—हल्का गुलाबी लहँगा, पोनीटेल, और क्यूट सी घबराहट। प्रीति। भीड़ में उसका दुपट्टा फूलों की वायर में फँस गया। सोनू ने तुरंत आगे बढ़कर दुपट्टा छुड़ा दिया। प्रीति ने धीमे, शर्माए-सजाए अंदाज़ में कहा— “थैंक यू… वरना मैं भी वरमाला के साथ स्टेज पर चढ़ जाती!” सोनू ने पहली बार किसी शादी में...

डिजिटल बाबा और चिकन बिरयानी का कनेक्शन

  गाँव के लोग हमेशा अपने पुराने रिवाज़ों और पारंपरिक जीवन में व्यस्त रहते थे। सुबह उठते ही हर कोई खेत में या मंदिर में निकल जाता, और मोबाइल का नाम सुनना भी दूर की बात थी। लेकिन एक दिन गाँव में कुछ अलग हुआ। सुबह-सुबह गाँव की चौपाल पर एक आदमी पहुँचा। वो साधारण दिखता था, लंबा कुर्ता और सफेद दाढ़ी, लेकिन उसके हाथ में मोबाइल और ईयरफोन थे। गाँव वाले धीरे-धीरे इकट्ठा हो गए। गोलू ने धीरे से पप्पू से कहा, “ये कौन है, बाबा या कोई नया टीचर?” पप्पू बोला, “देखो तो सही, वीडियो कॉल पर किसी से बात कर रहे हैं।” डिजिटल बाबा ने सभी को देखकर हाथ हिलाया और बोला, “नमस्ते बच्चों! मैं डिजिटल बाबा हूँ। मैं आपको जीवन के हर रहस्य की जानकारी ऐप्स और सोशल मीडिया से दूँगा!” गाँव वाले थोड़े चौंके। पंडितजी शर्मा ने फुसफुसाते हुए कहा, “मोबाइल वाले संत? ये तो नई बात है।” बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां पंडितजी, अब ज्ञान केवल मंदिर में नहीं मिलता, बल्कि इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब पर भी मिलता है।” गोलू और पप्पू तो बेसब्र हो गए। उन्होंने तुरंत अपने मोबाइल निकालकर बाबा का लाइव वीडियो रिकॉर्ड करना शुरू क...

“दीपों का गाँव” — एक प्रेरक ग्रामीण कथा

  अरावली की तलहटी में बसे किशनपुर गाँव का सूरज किसी और जगह से थोड़ा अलग उगता था। क्यों? क्योंकि इस गाँव के लोग मानते थे कि हर दिन की पहली किरण उम्मीद, प्रेम और मेहनत का संदेश लेकर आती है। पर यह मान्यता हर किसी की नहीं थी—कम-से-कम गाँव के एक हिस्से की तो बिल्कुल भी नहीं। किशनपुर के दो हिस्से थे— ऊपरवाड़ा और नीचेवाला मोहल्ला । ऊपरवाड़ा समृद्ध था, वहीं नीचेवाला मोहल्ला गरीब। इस आर्थिक और सामाजिक दूरी ने गाँव में कई कड़वाहटें भरी थीं। पर इन्हीं सबके बीच जन्मा था दीपक , एक 14 वर्षीय लड़का, जिसकी आँखों में चमक थी, और जिसका दिल गाँव से भी बड़ा था। दीपक नीचे वाले मोहल्ले का था। उसका पिता, हरिलाल, गाँव का एकमात्र मोची था। माँ खेतों में मजदूरी करती थी। गरीबी के बावजूद दीपक पढ़ना चाहता था। उसका सपना था—गाँव के बच्चों के लिए एक ऐसी जगह बनाना जहाँ हर बच्चा पढ़ सके। किशनपुर में एक ही स्कूल था— सरकारी प्राथमिक विद्यालय । छोटा सा, जर्जर कमरों वाला स्कूल। लेकिन बच्चों के सपने बड़े थे। समस्या यह थी कि ऊपरवाड़े के लोग चाहते थे कि उनके बच्चे अलग बैठें। वे गरीब बच्चों के साथ पढ़ाना पसंद नहीं करत...