Skip to main content

बिना गुरु के ज्ञान

नदी के किनारे बसा वह छोटा-सा गाँव मानचित्रों में कहीं दर्ज नहीं था। लोग उसे जानते थे , पर दुनिया के लिए वह बस एक और गुमनाम बस्ती थी। उसी गाँव में माधव नाम का एक युवक रहता था , जो बाहर से देखने पर बिल्कुल साधारण लगता था , पर भीतर से लगातार जलता रहता था। जलता था अपनी असफलताओं से , अपनी तुलना से और इस प्रश्न से कि जीवन ने उसके साथ ही अन्याय क्यों किया। उसके हमउम्र लोग शहर जा चुके थे , कोई नौकरी में था , कोई व्यापार में , और माधव वहीं रह गया था—खेती करता हुआ , मिट्टी में हाथ सना हुआ , पर मन में असंतोष भरा हुआ। माधव हर सुबह नदी में स्नान करता , पर शुद्धि केवल शरीर की होती , मन की नहीं। उसे लगता कि उसका जीवन कहीं अटका हुआ है। वह मेहनत करता था , पर उसे कभी पर्याप्त नहीं लगता था। जब भी वह किसी सफल व्यक्ति के बारे में सुनता , उसके भीतर ईर्ष्या उठती। वह खुद को समझाता कि परिस्थितियाँ ही ऐसी हैं , पर कहीं न कहीं वह जानता था कि जड़ उससे भी गहरी है। एक दिन गाँव में खबर फैली कि नदी के उस पार एक अजीब-सा साधु आया है। वह न प्रवचन देता है , न चमत्कार दिखाता है। वह बस नदी के किनारे बैठता है और लोगों क...

संन्यास नहीं, समझ

 बहुत प्राचीन काल की बात है, जब हिमालय की तलहटी में बसा एक नगर अपने शांत वातावरण, साफ नदियों और सरल जीवनशैली के लिए प्रसिद्ध हुआ करता था। उस नगर की सुबह मंदिरों की घंटियों और पक्षियों की चहचहाहट से होती थी और रातें दीयों की लौ तथा धीमी बातचीत में ढल जाया करती थीं। लोग अधिक धनवान नहीं थे, पर एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। समय के साथ व्यापार बढ़ा, नगर समृद्ध हुआ और समृद्धि के साथ ही मनुष्यों के हृदय में तुलना, प्रतिस्पर्धा और असंतोष भी धीरे-धीरे प्रवेश करने लगा। उसी नगर में एक प्रतिष्ठित व्यापारी निवास करता था, जिसका नाम देवदत्त था। उसकी गिनती नगर के सबसे धनवान लोगों में होती थी और लोग उसके निर्णयों को महत्व देते थे। देवदत्त का इकलौता पुत्र आरव था, जो बचपन से ही अन्य बच्चों से अलग स्वभाव का था।

आरव का बचपन सुविधाओं से भरा हुआ था, पर उसका मन खेलों और खिलौनों में अधिक देर तक नहीं लगता था। जब अन्य बच्चे मिट्टी में खेलते या आपस में शोर मचाते, तब आरव किसी पेड़ की छाया में बैठकर बहती नदी को देखता रहता। उसकी आँखों में एक अनजानी जिज्ञासा रहती, मानो वह केवल दृश्य नहीं, बल्कि उनके पीछे छिपे अर्थ को समझना चाहता हो। उसकी माँ कई बार उसे पुकारती, पर वह देर से उत्तर देता, जैसे वह किसी और ही संसार में खोया हुआ हो। उसके पिता को यह सब बचपन की आदतें लगतीं और उन्हें विश्वास था कि समय के साथ आरव भी सामान्य युवकों की तरह व्यापार और परिवार में रम जाएगा।

विद्यालय में आरव पढ़ाई में तेज था, लेकिन शिक्षक उससे थोड़ा असहज भी रहते थे। वह पाठ याद करने से अधिक प्रश्न पूछता था। वह पूछता था कि मनुष्य जन्म क्यों लेता है, मृत्यु क्या है, और क्या हर व्यक्ति को वही जीवन जीना पड़ता है जो समाज तय करता है। कई शिक्षक इन प्रश्नों को टाल देते, कुछ उसे चुप करा देते, और कुछ कहते कि यह सब सोचने की उम्र नहीं है। लेकिन आरव के भीतर ये प्रश्न और भी गहरे उतरते चले जाते। उसे लगता कि जो जीवन वह देख रहा है, वह अधूरा है, जैसे किसी पुस्तक के पन्ने गायब हों।

यौवन में प्रवेश करते-करते आरव बाहरी रूप से एक सफल और सुसंस्कृत युवक बन चुका था। उसके पिता ने उसे व्यापार की बारीकियाँ सिखाईं। वह लेन-देन में कुशल था, निर्णय सही लेता था और लोगों से विनम्रता से बात करता था। समाज की दृष्टि में उसके पास सब कुछ था—धन, प्रतिष्ठा, परिवार और भविष्य। फिर भी जब वह रात को अकेले अपने कक्ष में बैठता, तो उसके भीतर एक अजीब खालीपन फैल जाता। वह सोचता कि यदि यही जीवन है, तो इसमें वह शांति क्यों नहीं है जिसकी तलाश उसे बचपन से रही है।

समय आने पर उसका विवाह कर दिया गया। उसकी पत्नी सौम्य, समझदार और कर्तव्यनिष्ठ थी। उसने अपने दायित्व पूरे मन से निभाए, पर वह भी महसूस करती थी कि आरव कहीं दूर रहता है, जैसे उसका शरीर यहाँ है, पर मन किसी और दिशा में भटक रहा है। कई रातों को वह आरव को चुपचाप आकाश की ओर देखते पाती, और पूछने पर वह केवल हल्की मुस्कान देकर बात टाल देता। वह किसी को दुख नहीं देना चाहता था, पर स्वयं के भीतर उठते तूफान को भी दबा नहीं पा रहा था।

इसी समय नगर में एक वृद्ध भिक्षु के आगमन की चर्चा फैलने लगी। कहा जाता था कि वह वर्षों से जंगलों, पर्वतों और आश्रमों में भ्रमण कर रहा है और जहाँ भी जाता है, वहाँ लोगों के जीवन में कोई न कोई परिवर्तन अवश्य होता है। वह न उपदेश देता था, न चमत्कार दिखाता था, फिर भी लोग उसके पास खिंचे चले आते थे। जब वह नगर में पहुँचा, तो उसकी साधारण वेशभूषा और शांत मुखमंडल ने सभी का ध्यान आकर्षित किया। उसकी चाल धीमी थी, पर दृढ़ थी, और उसकी आँखों में ऐसी गहराई थी जैसे उन्होंने जीवन के सारे उतार-चढ़ाव देख लिए हों।

आरव भी उसे देखने गया। जैसे ही भिक्षु की दृष्टि आरव से मिली, आरव को लगा कि उसके भीतर कुछ हिल गया है। उसे पहली बार ऐसा महसूस हुआ कि कोई उसे बिना बोले समझ रहा है। वह भिक्षु के पीछे-पीछे नगर के बाहर तक चला गया, जहाँ एक विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे भिक्षु बैठ गया। आरव ने साहस जुटाकर अपने मन की व्यथा कह दी। उसने बताया कि उसके पास सब कुछ है, फिर भी वह भीतर से खाली है। भिक्षु ने शांति से उसकी बात सुनी और कहा कि अधिकांश मनुष्य उसी चीज़ की तलाश में जीवन बिता देते हैं, जो वे पहले से अपने भीतर लिए हुए होते हैं।

उन दोनों की मुलाकातें बढ़ने लगीं। आरव चोरी-छिपे भिक्षु से मिलने लगा। भिक्षु उसे न तो किसी धर्म का पाठ पढ़ाता, न किसी सिद्धांत में बाँधता। वह केवल कहता कि अपने मन को देखो, अपने विचारों को पहचानो और उनसे लड़ो मत। आरव के लिए यह आसान नहीं था। जब वह मौन में बैठता, तो उसका मन और अधिक शोर मचाने लगता। पुरानी इच्छाएँ, भय, क्रोध और अपेक्षाएँ एक-एक कर सामने आने लगतीं। कई बार वह घबरा जाता, पर भिक्षु उसे धैर्य रखने को कहता।

धीरे-धीरे आरव को समझ में आने लगा कि उसका दुख परिस्थितियों से नहीं, बल्कि उसके मन की पकड़ से पैदा होता है। वह जितना अधिक नियंत्रण चाहता था, उतना ही बेचैन होता जाता था। यह समझ उसके लिए जीवन बदलने वाली थी। एक रात उसने भिक्षु के सामने स्वीकार किया कि वह अब पुराने जीवन में लौटने की कल्पना भी नहीं कर पा रहा है। भिक्षु ने उसे चेताया कि यह मार्ग कठिन है और इसमें त्याग, अपमान और अकेलापन भी मिलेगा। फिर भी यदि उसका मन तैयार है, तो उसे कोई रोक नहीं सकता।

जब आरव ने संन्यास लेने का निर्णय लिया और यह बात परिवार को बताई, तो घर में कोलाहल मच गया। पिता को लगा कि उनका पुत्र सब कुछ छोड़कर उनका अपमान कर रहा है। माँ का हृदय टूट गया और पत्नी असमंजस में पड़ गई। समाज ने तरह-तरह की बातें बनाईं। किसी ने कहा कि वह पागल हो गया है, किसी ने कहा कि किसी ने उस पर जादू कर दिया है। आरव स्वयं भी भावनाओं के भंवर में था, पर भीतर कहीं एक अडिग शांति भी थी, जो उसे आगे बढ़ने का साहस दे रही थी। उसने सबको प्रणाम किया और नगर छोड़ दिया।

संन्यास का जीवन वैसा नहीं था जैसा आरव ने कल्पना की थी। जंगलों में भटकना, ठंडी रातें, कम भोजन और अनिश्चित भविष्य—यह सब उसके लिए नया और कठिन था। कई बार उसका शरीर जवाब देने लगता, पर जब भी वह हार मानने लगता, उसे भिक्षु के शब्द याद आते कि यह मार्ग बाहर का नहीं, भीतर का है। समय के साथ उसका अहंकार टूटने लगा। वह अब स्वयं को किसी से बड़ा या अलग नहीं समझता था। उसे हर जीव में वही पीड़ा और वही चाह दिखने लगी।

वर्षों की साधना के बाद आरव का मन स्थिर होने लगा। अब उसे मौन से डर नहीं लगता था। वह जान गया था कि सुख और दुख आते-जाते हैं, पर जो उन्हें देखता है, वह उनसे परे है। लोग अब उसे एक युवा भिक्षु के रूप में पहचानने लगे थे। वह जहाँ जाता, वहाँ लोग उसके पास बैठकर शांति महसूस करते। वह बहुत कम बोलता, पर उसकी उपस्थिति ही लोगों के हृदय को छू लेती थी।

एक दिन उसे समाचार मिला कि उसका पुराना नगर संकट में है। अकाल पड़ा था, लोग निराश थे और उसका परिवार भी कठिनाइयों से गुजर रहा था। आरव बिना किसी संकोच के वहाँ लौट गया। उसने न स्वयं को भिक्षु घोषित किया, न कोई विशेष सम्मान चाहा। वह चुपचाप सेवा में लग गया। उसने अपने पिता की सेवा की, माँ के आँसू पोंछे और पत्नी के सामने नतमस्तक हुआ। उस क्षण सभी को समझ में आया कि उसने कभी उन्हें छोड़ा नहीं था, बल्कि स्वयं को पाने के लिए यह यात्रा की थी।

कुछ समय बाद एक सुबह, पीपल के उसी वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए आरव ने देह त्याग दी। उसके चेहरे पर वही शांति थी, जिसकी तलाश में वह जीवन भर भटका था। नगर में शोक नहीं, बल्कि एक अजीब शांति फैल गई। लोग कहते थे कि आरव ने उन्हें सिखाया कि जीवन बदलने के लिए संसार छोड़ना आवश्यक नहीं, बल्कि अपने भीतर की अंधकार को पहचानना आवश्यक है।

आज भी उस नगर में यह कथा कही जाती है कि एक युवक, जिसके पास सब कुछ था, फिर भी उसने सब छोड़ दिया, और अंततः वही सबसे समृद्ध बन गया—शांति में, करुणा में और सत्य में। यह कहानी हर उस व्यक्ति के लिए है, जो बाहर बहुत कुछ पा चुका है, पर भीतर अभी भी स्वयं को खोज रहा है।

आरव के देह त्याग के बाद नगर में कई दिनों तक एक अद्भुत मौन छाया रहा। लोग अपने-अपने कार्यों में लगे थे, पर मन कहीं और भटका रहता था। ऐसा नहीं था कि किसी ने कोई बड़ा संत खो दिया हो, बल्कि ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने उन्हें आईना दिखा दिया हो और अब वे स्वयं से नज़रें नहीं चुरा पा रहे थे। पीपल का वही वृक्ष, जिसके नीचे आरव अंतिम बार ध्यान में बैठा था, अब लोगों के लिए केवल एक वृक्ष नहीं रह गया था। वहाँ बैठते ही मन अपने आप शांत हो जाता, जैसे हवा में अब भी आरव की साधना की गूँज शेष हो।

आरव के पिता देवदत्त इस परिवर्तन को सबसे अधिक महसूस कर रहे थे। जीवन भर उन्होंने धन, प्रतिष्ठा और नियंत्रण को ही सफलता का मापदंड माना था। पुत्र के संन्यास को वे अपनी हार समझते रहे, पर अब जब आरव इस संसार में नहीं था, तब उन्हें पहली बार यह बोध हुआ कि उन्होंने अपने बेटे को कभी वास्तव में जाना ही नहीं। वे रोज़ पीपल के वृक्ष के नीचे बैठते और उन पलों को याद करते, जब आरव बचपन में प्रश्न पूछता था और वे उसे भविष्य की चिंता कहकर चुप करा देते थे। अब वे समझ पा रहे थे कि वे प्रश्न बचकाने नहीं, बल्कि गहरे थे।

नगर के कुछ युवक, जो पहले आरव का उपहास किया करते थे, अब उसी मार्ग के बारे में सोचने लगे थे। वे समझने लगे थे कि आरव ने कोई पलायन नहीं किया था, बल्कि उसने साहस दिखाया था—वैसा साहस, जो भीतर झाँकने के लिए चाहिए होता है। वे आपस में चर्चा करते कि क्या सच में जीवन केवल कमाने, जमा करने और तुलना करने तक सीमित है, या इसके परे भी कुछ है। इन चर्चाओं में कोई निष्कर्ष नहीं निकलता, पर एक बीज अवश्य बोया जा चुका था।

इसी समय नगर में एक युवक आया, जिसका नाम नील था। वह दूर के क्षेत्र से यात्रा करता हुआ यहाँ पहुँचा था। उसने आरव की कथा किसी राहगीर से सुनी थी और उसके मन में गहरी जिज्ञासा जाग उठी थी। नील स्वयं भी जीवन से असंतुष्ट था। उसके पास शिक्षा थी, बुद्धि थी, पर मन अशांत था। वह पीपल के वृक्ष के नीचे बैठा और घंटों मौन में रहा। उसे लगा जैसे प्रश्नों के उत्तर शब्दों में नहीं, बल्कि इस मौन में छिपे हैं।

नील ने नगर के बुज़ुर्गों से आरव के बारे में जानना शुरू किया। हर व्यक्ति ने उसे अलग-अलग रूप में याद किया—किसी ने उसे आज्ञाकारी पुत्र कहा, किसी ने विद्रोही, किसी ने संत, और किसी ने केवल एक शांत मनुष्य। नील को धीरे-धीरे समझ में आने लगा कि आरव किसी एक पहचान में बंधा नहीं था। वह हर भूमिका से गुज़रा, पर किसी में अटका नहीं। यही उसकी सबसे बड़ी शिक्षा थी।

एक शाम नील को ऐसा लगा मानो पीपल के वृक्ष के नीचे बैठते हुए उसके भीतर कुछ बदल रहा है। उसे पहली बार अपने विचारों से दूरी महसूस हुई। जो चिंता, भय और असमंजस उसे वर्षों से घेरे हुए थे, वे अब उतने सशक्त नहीं लग रहे थे। उसे लगा जैसे आरव की यात्रा अभी समाप्त नहीं हुई है, बल्कि किसी और के भीतर आगे बढ़ रही है।

धीरे-धीरे पीपल का वह स्थान एक अनौपचारिक आश्रय बन गया। लोग वहाँ आते, बैठते, बातें करते और कभी-कभी चुपचाप रो लेते। कोई उपदेश नहीं था, कोई नियम नहीं था। केवल एक स्मृति थी—कि एक मनुष्य ने ईमानदारी से स्वयं को समझने का प्रयास किया था। और वही प्रयास अब दूसरों को भी अपने भीतर झाँकने का साहस दे रहा था।

देवदत्त ने एक दिन नील से कहा कि आरव ने उन्हें सिखाया कि पिता होना केवल भविष्य तय करना नहीं, बल्कि बच्चे के प्रश्नों के साथ खड़ा होना भी है। यह कहते हुए उनकी आँखों में आँसू थे, पर उन आँसुओं में पछतावे से अधिक स्वीकृति थी। नील ने उस दिन समझा कि परिवर्तन केवल त्याग से नहीं, बल्कि स्वीकार से भी आता है।

समय के साथ नगर फिर से सामान्य हो गया। व्यापार लौट आया, फसलें उगने लगीं, और जीवन अपनी गति से चल पड़ा। पर अब सब कुछ पहले जैसा नहीं था। लोग अधिक चुप हो गए थे, अधिक सुनने लगे थे। वे जानते थे कि हर उत्तर तुरंत नहीं मिलता, और हर प्रश्न का समाधान शब्दों में नहीं होता।

आरव की कहानी अब केवल एक कथा नहीं रही थी। वह एक बीज बन चुकी थी—ऐसा बीज, जो हर उस मन में अंकुरित हो सकता था, जो ईमानदारी से स्वयं को समझना चाहता हो। और शायद यही आरव की यात्रा का अगला चरण था—देह से परे, नाम से परे, और समय से परे।

नील का मन अब पहले जैसा नहीं रहा था। पीपल के वृक्ष के नीचे बिताए गए वे घंटे उसके भीतर किसी अदृश्य द्वार को खोल चुके थे। वह नगर में रहते हुए भी कहीं भीतर की यात्रा पर निकल चुका था। पहले जहाँ वह अपने भविष्य, असफलताओं और दूसरों की अपेक्षाओं के बारे में लगातार सोचता रहता था, अब उन विचारों के बीच उसे छोटे-छोटे अंतराल दिखने लगे थे। उन अंतरालों में कोई विचार नहीं होता था, केवल एक शांत उपस्थिति होती थी, जिसे वह शब्दों में नहीं बाँध सकता था।

नील ने नगर में कुछ दिन और रुकने का निर्णय किया। वह किसी उद्देश्य से नहीं रुका था, बल्कि इसलिए कि उसे पहली बार बिना उद्देश्य के रहने का स्वाद मिला था। वह सुबह नदी किनारे बैठता, दिन में लोगों के साथ साधारण बातचीत करता और शाम को पीपल के नीचे मौन में बैठ जाता। उसे आश्चर्य होता कि जब वह कुछ बनने या पाने की कोशिश नहीं करता, तब जीवन अपने आप कितना सरल हो जाता है।

एक दिन एक वृद्ध स्त्री उसके पास आकर बैठी। उसकी आँखों में गहरा दुख था। उसने बिना भूमिका के अपने जीवन की पीड़ा कहनी शुरू कर दी—बेटे की मृत्यु, अकेलापन और ईश्वर से नाराज़गी। नील ने कुछ नहीं कहा। उसने केवल सुना। उस स्त्री की आँखों से आँसू बहते रहे और नील के भीतर एक अनजानी करुणा उमड़ती रही। जब वह स्त्री उठकर गई, तो उसके चेहरे पर हल्कापन था। नील को तब समझ आया कि कभी-कभी समाधान देने से अधिक आवश्यक होता है, किसी के साथ पूरी तरह उपस्थित रहना।

उसी रात नील ने सपना देखा कि वह एक लम्बी सड़क पर चल रहा है। सड़क के दोनों ओर कई द्वार थे, जिन पर नाम लिखे थे—सफलता, भय, पहचान, सुरक्षा। वह हर द्वार के सामने रुकता, पर भीतर जाने की इच्छा नहीं होती। अंत में सड़क समाप्त हो जाती है और सामने खुला आकाश होता है। वह जागा तो उसके मन में एक स्पष्टता थी कि उसका मार्ग किसी पहचान की ओर नहीं, बल्कि पहचान से मुक्ति की ओर है।

अगले दिनों में नील को नगर छोड़ने की प्रेरणा हुई, पर इस बार भागने के लिए नहीं, बल्कि देखने के लिए। उसने देवदत्त से विदा ली। देवदत्त ने उसके हाथ में एक छोटा-सा कपड़े का टुकड़ा दिया, जो आरव ने वर्षों पहले छोड़ते समय दिया था। नील ने उसे सहेज लिया, किसी प्रतीक की तरह नहीं, बल्कि स्मृति की तरह—कि सत्य को पकड़ा नहीं जाता, केवल जिया जाता है।

नील ने यात्रा शुरू की। वह गाँव-गाँव गया, कभी खेतों में काम किया, कभी यात्रियों के साथ चला, कभी मंदिरों में रुका और कभी जंगलों में। हर जगह उसे वही दिखाई दिया—मनुष्य दुखी इसलिए नहीं है कि उसके पास कम है, बल्कि इसलिए कि वह स्वयं से दूर है। नील अब किसी को समझाने नहीं जाता था। वह जान चुका था कि हर व्यक्ति की यात्रा अलग होती है और किसी की गति को तेज़ नहीं किया जा सकता।

एक बार वह एक आश्रम में रुका, जहाँ साधक कठिन नियमों और अनुशासन में बँधे हुए थे। कुछ दिनों बाद नील को लगा कि वहाँ शांति कम और प्रयास अधिक है। उसने बिना किसी विरोध के आश्रम छोड़ दिया। उसे अब यह स्पष्ट हो गया था कि जहाँ प्रयास बहुत अधिक हो, वहाँ अहंकार किसी न किसी रूप में उपस्थित रहता है। शांति ज़ोर लगाने से नहीं, ढील देने से आती है।

समय बीतने के साथ नील के भीतर एक स्थिरता आने लगी। दुख आता था, पर टिकता नहीं था। सुख आता था, पर बाँधता नहीं था। वह जान गया था कि जीवन की लहरों के साथ बहना ही कला है, उनके विरुद्ध तैरना संघर्ष है। वह अब स्वयं को यात्री नहीं, बल्कि साक्षी के रूप में अनुभव करने लगा था।

वर्षों बाद नील उसी नगर में लौटा, पर इस बार एक खोजी के रूप में नहीं, बल्कि एक साधारण मनुष्य के रूप में। उसने पीपल के वृक्ष के नीचे बैठकर आँखें बंद कीं। वहाँ न कोई आरव था, न कोई कथा, न कोई लक्ष्य। केवल श्वास थी, मौन था और एक गहरी कृतज्ञता थी। उसे लगा जैसे यात्रा पूरी हो गई हो, और साथ ही जैसे हर दिन एक नई शुरुआत है।

लोग धीरे-धीरे उसके पास आने लगे। कोई प्रश्न लेकर, कोई दुख लेकर, कोई केवल बैठने के लिए। नील ने वही किया जो उसने सीखा था—उपस्थित रहा। उसने जाना कि आरव की यात्रा उसके भीतर आगे बढ़ी थी, और अब उसकी यात्रा किसी और के भीतर आगे बढ़ेगी। यही जीवन का प्रवाह था—एक दीप से दूसरे दीप तक, बिना किसी स्वामित्व के।

और इस तरह कथा आगे बढ़ती रही, बिना शोर के, बिना घोषणा के। क्योंकि सत्य कभी प्रचार नहीं करता, वह केवल प्रकट होता है—उनके भीतर, जो देखने का साहस रखते हैं।

समय अब नील के लिए रेखाओं में नहीं बँटा था। दिन और रात आते-जाते रहते, पर उसके भीतर कोई जल्दी नहीं थी। वह जहाँ भी ठहरता, वहाँ का जीवन वैसे ही बहने देता, जैसा वह था। लोगों को लगता कि नील कुछ सिखा रहा है, पर वास्तव में वह कुछ जोड़ नहीं रहा था, केवल अनावश्यक को हटने दे रहा था। उसके साथ बैठकर लोगों को अपने ही मन की आवाज़ सुनाई देने लगती, और वही सबसे बड़ी शिक्षा बन जाती।

नील ने कभी स्वयं को गुरु नहीं कहा। जब कोई उसके चरणों में झुकने की कोशिश करता, तो वह विनम्रता से हाथ जोड़कर पीछे हट जाता। वह कहता कि जो दिख रहा है, वही पर्याप्त है; उसके और किसी के बीच कोई दूरी नहीं है। इस सरलता में ही लोगों को गहराई दिखाई देती। वे समझने लगे कि सम्मान माँगा नहीं जाता, वह स्वाभाविक रूप से प्रकट होता है, जब अहंकार अनुपस्थित होता है।

एक वर्ष सूखे का आया। आसपास के गाँवों में कठिनाइयाँ बढ़ीं। नील ने किसी आयोजन या घोषणा के बिना लोगों को एकत्र किया और सबने मिलकर जो थोड़ा-बहुत था, उसे बाँटना शुरू किया। किसी ने इसे सेवा कहा, किसी ने करुणा, पर नील के लिए यह केवल सहज प्रतिक्रिया थी। जब मन अलगाव में नहीं जीता, तो दूसरों का दुख अपना ही लगने लगता है। उस समय कई लोगों ने पहली बार अनुभव किया कि आध्यात्मिकता शब्दों में नहीं, कर्म की सादगी में बसती है।

इन्हीं दिनों नील को अपने भीतर एक गहरी थकान महसूस होने लगी, पर यह थकान शरीर की थी, मन की नहीं। उसका मन पहले से अधिक हल्का था। वह जानता था कि हर यात्रा का एक विश्राम भी होता है। एक शाम वह पीपल के वृक्ष के नीचे बैठा और उसने उसी कपड़े के टुकड़े को हाथ में लिया, जो देवदत्त ने उसे दिया था। उसे लगा जैसे आरव की मुस्कान हवा में घुली हुई है। न कोई संवाद था, न कोई स्मृति का बोझ—केवल एक शांत स्वीकार।

नील ने उस रात बहुत कम सोया। भोर से पहले ही उसकी आँख खुल गई। उसने आकाश की ओर देखा, जहाँ हल्की-सी रोशनी फैल रही थी। उसे स्पष्ट था कि जो कुछ भी उसने जाना, वह उसका नहीं था, उसे बस होकर गुजरने दिया गया था। उसे किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की आवश्यकता नहीं लगी। जीवन अपने आप पूर्ण लग रहा था, बिना किसी अतिरिक्त अर्थ के।

सुबह होने पर कुछ लोग उसके पास आए। किसी ने पूछा कि अब आगे क्या करना चाहिए। नील मुस्कुराया और बोला कि वही करो, जो इस क्षण स्पष्ट है। भविष्य को बोझ मत बनाओ। यह उत्तर सरल था, पर उसमें गहरी स्वतंत्रता छिपी थी। लोगों ने देखा कि नील की आँखों में वही शांति थी, जो कभी आरव की आँखों में थी, पर अब वे आँखें किसी व्यक्ति की नहीं, बल्कि एक प्रवाह की प्रतीक लगती थीं।

कुछ दिनों बाद नील ने एकांत में समय बिताना शुरू किया। वह कम बोलता, अधिक सुनता, और कभी-कभी केवल मौन में बैठा रहता। लोग समझ गए कि उसकी उपस्थिति अब शब्दों से परे जा रही है। एक सुबह वह पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान में बैठा और फिर उठा नहीं। उसके चेहरे पर कोई तनाव नहीं था, केवल एक सहज शांति थी, जैसे कोई लंबी यात्रा पूरी होकर घर लौट आई हो।

नगर में शोक नहीं फैला, बल्कि एक गहरी चुप्पी उतर आई। लोग इकट्ठा हुए, पर रोने से अधिक वे भीतर की ओर मुड़े। उन्हें लगा कि कुछ समाप्त नहीं हुआ, बल्कि कुछ स्थिर हो गया है। पीपल का वृक्ष पहले से अधिक हरा दिख रहा था, जैसे उसने अनगिनत मौन कथाएँ अपने भीतर सहेज ली हों।

समय बीतता गया। नई पीढ़ियाँ आईं। किसी ने आरव का नाम सुना, किसी ने नील का, और किसी ने केवल उस पीपल के नीचे बैठने की परंपरा को जाना। कथाएँ बदलती रहीं, शब्द बदलते रहे, पर सार वही रहा—कि जीवन बाहर से नहीं, भीतर से बदला जाता है। जो स्वयं को देखने का साहस करता है, वही वास्तव में जागता है।

और इस तरह यह कहानी किसी एक व्यक्ति पर समाप्त नहीं हुई। यह हर उस मन में आगे बढ़ती रही, जो थोड़ी देर के लिए ही सही, रुककर स्वयं को सुनने का साहस करता है। क्योंकि सत्य कभी समाप्त नहीं होता, वह केवल रूप बदलता है—एक शांत दृष्टि से दूसरी शांत दृष्टि तक।

Comments

Popular posts from this blog

शादी, शरारत और रसगुल्ले: सोनू–प्रीति का सफ़र

यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक (fictional) है।  सोनू, प्रीति और इसमें वर्णित सभी व्यक्ति, घटनाएँ, स्थान और परिस्थितियाँ कल्पना पर आधारित हैं ।  इसमें किसी वास्तविक व्यक्ति, परिवार या घटना से कोई संबंध नहीं है।  कहानी का उद्देश्य केवल मनोरंजन और रचनात्मकता है।  30 नवंबर की रात थी—भव्य सजावट, ढोल का धमाका, चूड़ियों की खनखनाहट और रिश्तेदारों की भीड़। यही थी सोनू के बड़े भाई की शादी। प्रीति अपनी मौसी के परिवार के साथ आई थी। दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे… अभी तक। 🌸 पहली मुलाक़ात – वरमाला के मंच पर वरमाला का शूम्बर शुरू हुआ था। दूल्हा-दुल्हन स्टेज पर खड़े थे, और सभी लोग उनके इर्द-गिर्द फोटो लेने में जुटे थे। सोनू फोटोग्राफर के पास खड़ा था। तभी एक लड़की उसके बगल में फ्रेम में आ गई—हल्का गुलाबी लहँगा, पोनीटेल, और क्यूट सी घबराहट। प्रीति। भीड़ में उसका दुपट्टा फूलों की वायर में फँस गया। सोनू ने तुरंत आगे बढ़कर दुपट्टा छुड़ा दिया। प्रीति ने धीमे, शर्माए-सजाए अंदाज़ में कहा— “थैंक यू… वरना मैं भी वरमाला के साथ स्टेज पर चढ़ जाती!” सोनू ने पहली बार किसी शादी में...

डिजिटल बाबा और चिकन बिरयानी का कनेक्शन

  गाँव के लोग हमेशा अपने पुराने रिवाज़ों और पारंपरिक जीवन में व्यस्त रहते थे। सुबह उठते ही हर कोई खेत में या मंदिर में निकल जाता, और मोबाइल का नाम सुनना भी दूर की बात थी। लेकिन एक दिन गाँव में कुछ अलग हुआ। सुबह-सुबह गाँव की चौपाल पर एक आदमी पहुँचा। वो साधारण दिखता था, लंबा कुर्ता और सफेद दाढ़ी, लेकिन उसके हाथ में मोबाइल और ईयरफोन थे। गाँव वाले धीरे-धीरे इकट्ठा हो गए। गोलू ने धीरे से पप्पू से कहा, “ये कौन है, बाबा या कोई नया टीचर?” पप्पू बोला, “देखो तो सही, वीडियो कॉल पर किसी से बात कर रहे हैं।” डिजिटल बाबा ने सभी को देखकर हाथ हिलाया और बोला, “नमस्ते बच्चों! मैं डिजिटल बाबा हूँ। मैं आपको जीवन के हर रहस्य की जानकारी ऐप्स और सोशल मीडिया से दूँगा!” गाँव वाले थोड़े चौंके। पंडितजी शर्मा ने फुसफुसाते हुए कहा, “मोबाइल वाले संत? ये तो नई बात है।” बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां पंडितजी, अब ज्ञान केवल मंदिर में नहीं मिलता, बल्कि इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब पर भी मिलता है।” गोलू और पप्पू तो बेसब्र हो गए। उन्होंने तुरंत अपने मोबाइल निकालकर बाबा का लाइव वीडियो रिकॉर्ड करना शुरू क...

“दीपों का गाँव” — एक प्रेरक ग्रामीण कथा

  अरावली की तलहटी में बसे किशनपुर गाँव का सूरज किसी और जगह से थोड़ा अलग उगता था। क्यों? क्योंकि इस गाँव के लोग मानते थे कि हर दिन की पहली किरण उम्मीद, प्रेम और मेहनत का संदेश लेकर आती है। पर यह मान्यता हर किसी की नहीं थी—कम-से-कम गाँव के एक हिस्से की तो बिल्कुल भी नहीं। किशनपुर के दो हिस्से थे— ऊपरवाड़ा और नीचेवाला मोहल्ला । ऊपरवाड़ा समृद्ध था, वहीं नीचेवाला मोहल्ला गरीब। इस आर्थिक और सामाजिक दूरी ने गाँव में कई कड़वाहटें भरी थीं। पर इन्हीं सबके बीच जन्मा था दीपक , एक 14 वर्षीय लड़का, जिसकी आँखों में चमक थी, और जिसका दिल गाँव से भी बड़ा था। दीपक नीचे वाले मोहल्ले का था। उसका पिता, हरिलाल, गाँव का एकमात्र मोची था। माँ खेतों में मजदूरी करती थी। गरीबी के बावजूद दीपक पढ़ना चाहता था। उसका सपना था—गाँव के बच्चों के लिए एक ऐसी जगह बनाना जहाँ हर बच्चा पढ़ सके। किशनपुर में एक ही स्कूल था— सरकारी प्राथमिक विद्यालय । छोटा सा, जर्जर कमरों वाला स्कूल। लेकिन बच्चों के सपने बड़े थे। समस्या यह थी कि ऊपरवाड़े के लोग चाहते थे कि उनके बच्चे अलग बैठें। वे गरीब बच्चों के साथ पढ़ाना पसंद नहीं करत...