Skip to main content

खुद पर विश्वास

अमन एक साधारण से कस्बे में रहने वाला शांत स्वभाव का लड़का था। वह ज़्यादा बोलता नहीं था , लेकिन उसके मन में सवालों और सपनों की दुनिया हमेशा चलती रहती थी। उसके पिता एक छोटी सी दुकान चलाते थे और माँ घर के साथ-साथ बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर घर की आमदनी में मदद करती थीं। परिवार बड़ा नहीं था , लेकिन जिम्मेदारियाँ कम भी नहीं थीं। अमन बचपन से ही दूसरों को ध्यान से देखता , उनकी बातें सुनता और चुपचाप उनसे सीखने की कोशिश करता था। स्कूल में अमन को “औसत छात्र” कहा जाता था। न बहुत आगे , न बहुत पीछे। शिक्षक उसे मेहनती तो मानते थे , लेकिन उनमें से किसी को भी उसमें कोई खास प्रतिभा नज़र नहीं आती थी। कई बार उसे भी यही लगने लगता कि शायद वह कुछ खास करने के लिए बना ही नहीं है। जब उसके दोस्त बड़े-बड़े सपनों की बातें करते , तब अमन चुप रह जाता , क्योंकि उसे खुद अपने सपनों पर पूरा भरोसा नहीं होता था। एक दिन स्कूल में भाषण प्रतियोगिता की घोषणा हुई। अमन का नाम भी सूची में था। उसे लगा यह कोई गलती होगी , क्योंकि वह मंच पर बोलने से डरता था। उसका दिल तेज़-तेज़ धड़कने लगा। उसने शिक्षक से नाम हटाने की विनती की , लेकिन...

हार मानना मना है

रवि एक छोटे से गाँव में पैदा हुआ था, जहाँ सपने देखने वालों की संख्या बहुत कम और हालात से समझौता करने वालों की संख्या बहुत ज़्यादा थी। उसके पिता एक साधारण किसान थे और माँ घर संभालने के साथ-साथ दूसरों के खेतों में काम कर परिवार का सहारा बनती थीं। घर की आर्थिक स्थिति इतनी कमज़ोर थी कि कई बार दो वक्त का खाना भी मुश्किल से मिल पाता था, लेकिन रवि की आँखों में हमेशा कुछ बड़ा करने की चमक रहती थी। वह अक्सर रात को खुले आसमान के नीचे लेटकर तारों को देखता और सोचता कि क्या उसकी ज़िंदगी भी कभी इतनी ही चमकदार हो पाएगी।

गाँव का स्कूल सिर्फ नाम का स्कूल था। टूटी हुई कुर्सियाँ, बिना शीशों की खिड़कियाँ और पुराने ब्लैकबोर्ड—यही उसकी शिक्षा का आधार थे। ज़्यादातर बच्चे पढ़ाई को बोझ समझते थे, क्योंकि उनके लिए भविष्य पहले से तय था—खेत, मजदूरी या फिर शहर जाकर कोई छोटा-मोटा काम। लेकिन रवि अलग था। उसे किताबों से लगाव था। जब भी उसे कोई पुरानी किताब मिलती, वह उसे ऐसे संभालकर रखता जैसे कोई खज़ाना मिल गया हो। वह जानता था कि शिक्षा ही एकमात्र रास्ता है जो उसे इस सीमित दुनिया से बाहर निकाल सकती है।

हालाँकि रास्ता आसान नहीं था। कई बार उसे स्कूल छोड़कर पिता के साथ खेत में काम करना पड़ता। धूप में घंटों खड़ा रहना, हाथों में छाले पड़ना और थकान से टूट जाना उसकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी बन गई थी। कई बार उसके मन में भी आता कि पढ़ाई छोड़ दे और हालात को जैसा है वैसा स्वीकार कर ले, लेकिन हर बार उसके अंदर की आवाज़ उसे रोक लेती। वह खुद से कहता, “अगर मैं हार मान लूँगा, तो मेरी ज़िंदगी भी यहीं रुक जाएगी।”

गाँव के लोग अक्सर उसका मज़ाक उड़ाते। कोई कहता, “इतनी पढ़ाई करके क्या कर लेगा?” तो कोई हँसते हुए बोलता, “हमारे गाँव से आज तक कौन बड़ा आदमी बना है?” ये बातें रवि के दिल को चुभती थीं, लेकिन वह उन्हें अपनी कमज़ोरी नहीं बनने देता। उसने सीख लिया था कि जो लोग सपने नहीं देखते, वही दूसरों के सपनों पर हँसते हैं।

एक दिन स्कूल में नए शिक्षक आए। उनका नाम शर्मा जी था। उन्होंने रवि की आँखों में कुछ अलग देखा—एक भूख, कुछ साबित करने की तड़प। जब उन्होंने रवि से बात की, तो उसे एहसास हुआ कि कोई पहली बार उसकी सोच और सपनों को गंभीरता से ले रहा है। शर्मा जी ने उसे अतिरिक्त किताबें दीं और कहा कि हालात कितने भी कठिन हों, अगर इरादा मज़बूत हो तो रास्ता खुद बन जाता है। ये शब्द रवि के दिल में गहराई तक उतर गए।

रवि अब और ज़्यादा मेहनत करने लगा। वह सुबह जल्दी उठता, खेत में काम करता, फिर स्कूल जाता और रात को लालटेन की रोशनी में पढ़ाई करता। कई बार उसकी आँखें थकान से बंद होने लगतीं, लेकिन वह खुद को याद दिलाता कि यह संघर्ष अस्थायी है, हार मान लेना स्थायी। हर दिन वह खुद का एक बेहतर रूप बनाने की कोशिश करता।

समय के साथ उसकी मेहनत रंग लाने लगी। स्कूल में उसके नंबर सबसे अच्छे आने लगे। शर्मा जी ने उसे आगे की पढ़ाई के लिए शहर जाने की सलाह दी, लेकिन यह सुनकर रवि डर गया। शहर जाना, पैसे, रहने की जगह—सब कुछ एक अनजान चुनौती जैसा था। उसके माता-पिता भी चिंतित थे। उनके पास इतने साधन नहीं थे कि वे शहर में उसकी पढ़ाई का खर्च उठा सकें। उस रात रवि बहुत देर तक जागता रहा, सोचता रहा कि क्या उसका सपना यहीं खत्म हो जाएगा।

लेकिन उसी रात उसने एक फैसला किया। उसने तय किया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें आएँ, वह पीछे नहीं हटेगा। उसने अपने माता-पिता से कहा कि वह पढ़ाई के साथ काम भी कर लेगा, लेकिन अपने सपने को मरने नहीं देगा। उसके माता-पिता ने उसकी आँखों में आत्मविश्वास देखा और भारी दिल से उसे आशीर्वाद दे दिया।

रवि नहीं जानता था कि आगे का सफर कितना कठिन होगा, कितनी बार उसे असफलता का सामना करना पड़ेगा, और कितनी बार वह खुद पर शक करेगा। लेकिन इतना तय था कि उसने हार न मानने का फैसला कर लिया था। यही फैसला उसकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी ताकत बनने वाला था, और यहीं से उसकी असली परीक्षा शुरू होने वाली थी।

शहर रवि के लिए बिल्कुल नई दुनिया था—ऊँची इमारतें, भागती हुई ज़िंदगी और हर चेहरे पर समय की कमी। गाँव की शांति से निकलकर यहाँ खुद को संभालना आसान नहीं था। स्टेशन पर उतरते ही उसे अपनी छोटी-सी गठरी और माँ की दी हुई दुआ याद आई। जेब में गिने-चुने पैसे थे, जिनसे ज़्यादा दिन गुज़ारा होना नामुमकिन था। उसने एक सस्ते से छात्रावास में जगह ली, जहाँ एक कमरे में चार लोग रहते थे और सपने हर किसी के अलग थे।

पढ़ाई का दबाव और रोज़मर्रा के खर्चों की चिंता उसे अंदर से थका देती थी। दिन में कॉलेज की क्लासेज़ और शाम को वह एक छोटी सी दुकान पर काम करता, जहाँ उसे कम पैसे मिलते लेकिन अनुभव बहुत। कई बार रात को वापस लौटते समय उसके पैर जवाब दे जाते, लेकिन वह खुद से कहता, “थकान मंज़िल नहीं होती, मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता होती है।” यही सोच उसे अगले दिन फिर खड़ा कर देती।

कॉलेज में शुरुआत उसके लिए कठिन रही। शहर के छात्र आत्मविश्वास से भरे थे, उनके पास अच्छी किताबें, कोचिंग और सुविधाएँ थीं। रवि खुद को उनके बीच छोटा महसूस करता, कई बार सवाल पूछने से भी डरता। पहली परीक्षा में उसके नंबर उम्मीद से कम आए। यह उसकी ज़िंदगी की पहली बड़ी असफलता थी। उस रात वह बहुत देर तक बैठा रहा, मन में सवाल उठते रहे—क्या वह सच में इस जगह के लायक है? क्या गाँव से शहर आना उसकी सबसे बड़ी गलती थी?

लेकिन असफलता ने उसे तोड़ा नहीं, बल्कि सोचने पर मजबूर किया। उसने महसूस किया कि मेहनत सही दिशा में नहीं हो रही थी। अगली सुबह उसने अपनी दिनचर्या बदली। समय का सही उपयोग, ज़रूरी विषयों पर ध्यान और बेकार की तुलना से दूरी—ये सब उसने खुद से वादा किया। उसने लाइब्रेरी में ज़्यादा समय बिताना शुरू किया, जहाँ किताबों की खुशबू उसे नई ऊर्जा देती थी।

काम और पढ़ाई के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं था। कई बार उसे नींद पूरी नहीं मिलती, कई बार त्योहारों पर भी काम करना पड़ता। जब दोस्त घूमने जाते, वह काम पर होता। जब सब आराम करते, वह पढ़ाई करता। कभी-कभी उसे अकेलापन भी घेर लेता, लेकिन वह जानता था कि यह अकेलापन उसके सपने की कीमत है।

धीरे-धीरे बदलाव दिखने लगे। क्लास में उसकी समझ बेहतर होने लगी, शिक्षक उसके जवाबों की तारीफ़ करने लगे। वह अब सवाल पूछने से डरता नहीं था। उसकी मेहनत ने उसका आत्मविश्वास लौटाया। दूसरी परीक्षा में उसके नंबर काफी अच्छे आए। यह जीत छोटी थी, लेकिन उसके लिए बहुत बड़ी थी, क्योंकि यह साबित करती थी कि अगर इंसान हार के बाद भी डटा रहे, तो हालात बदल सकते हैं।

उसी दिन उसने घर फोन किया। माँ की आवाज़ सुनकर उसकी आँखें भर आईं। उसने उन्हें अपने अच्छे नंबरों के बारे में बताया। दूसरी तरफ से सिर्फ़ आशीर्वाद और गर्व की आवाज़ आई। उस पल रवि को एहसास हुआ कि उसकी मेहनत सिर्फ़ उसके लिए नहीं, बल्कि उन सबके लिए है जिन्होंने उस पर भरोसा किया है।

रवि समझ चुका था कि सफलता एक दिन में नहीं मिलती, यह रोज़ के छोटे-छोटे फैसलों से बनती है। उसने ठान लिया कि चाहे रास्ता कितना भी कठिन क्यों न हो, वह पीछे नहीं हटेगा। यह सफर अब सिर्फ़ गरीबी से निकलने का नहीं था, बल्कि खुद को साबित करने का बन चुका था।

उसे अभी नहीं पता था कि आगे और भी बड़ी चुनौतियाँ उसका इंतज़ार कर रही हैं, लेकिन अब वह डरता नहीं था। क्योंकि उसने सीख लिया था—जो इंसान संघर्ष से दोस्ती कर लेता है, उसे कोई भी मुश्किल रोक नहीं सकती।

समय अपनी गति से आगे बढ़ रहा था, लेकिन रवि की ज़िंदगी में चुनौतियाँ रुकने का नाम नहीं ले रही थीं। कॉलेज के अंतिम वर्ष में प्रवेश करते ही उस पर ज़िम्मेदारियों का बोझ और बढ़ गया। पढ़ाई कठिन हो चुकी थी और साथ ही घर से एक ख़बर आई जिसने उसके मन को हिला दिया। पिता की तबीयत बिगड़ने लगी थी और खेत की आमदनी लगभग खत्म हो गई थी। घर की आर्थिक हालत पहले से भी ज़्यादा खराब हो चुकी थी। रवि के सामने एक ही सवाल था—क्या वह पढ़ाई छोड़कर वापस गाँव चला जाए?

यह फैसला उसके लिए सबसे कठिन था। एक तरफ़ परिवार था, जिनके लिए वह सब कुछ था, और दूसरी तरफ़ उसका सपना, जिसे पाने के लिए उसने इतना संघर्ष किया था। कई रातें उसने बिना सोए बिताईं। कभी उसे लगता कि परिवार के साथ होना ज़्यादा ज़रूरी है, तो कभी मन कहता कि अगर वह अब हार गया, तो यह संघर्ष व्यर्थ हो जाएगा। अंत में उसने एक रास्ता चुना—वह पढ़ाई जारी रखेगा और ज़्यादा मेहनत करके परिवार की मदद भी करेगा।

रवि ने एक और काम शुरू किया। अब वह दिन में कॉलेज, शाम को दुकान और रात को ऑनलाइन ट्यूशन देने लगा। उसकी दिनचर्या लगभग मशीन जैसी हो गई थी। शरीर थक जाता था, लेकिन मन मज़बूत रहता। कई बार वह चलते-चलते ही सो जाता, फिर खुद को संभालकर आगे बढ़ता। उसने अपने आप से एक ही बात कही थी—“थक जाऊँगा, लेकिन रुकूँगा नहीं।”

इस दौरान उसकी सेहत बिगड़ने लगी। लगातार मेहनत और नींद की कमी ने असर दिखाना शुरू कर दिया। एक दिन क्लास में अचानक चक्कर आ गया और वह गिर पड़ा। अस्पताल में डॉक्टर ने साफ़ कहा कि अगर उसने आराम नहीं किया, तो हालात और बिगड़ सकते हैं। यह सुनकर रवि के मन में डर बैठ गया। पहली बार उसे लगा कि शायद वह अपनी सीमाओं को पार कर रहा है।

अस्पताल के बिस्तर पर लेटे-लेटे उसने अपनी पूरी यात्रा को याद किया—गाँव की मिट्टी, माँ के हाथ का खाना, पिता की मेहनती आँखें और खुद के अधूरे सपने। उसने समझा कि सफलता का मतलब सिर्फ़ आगे भागते रहना नहीं, बल्कि खुद का ख्याल रखना भी है। उसने अपनी दिनचर्या में बदलाव किया, कुछ काम छोड़े, लेकिन पढ़ाई और ज़रूरी ज़िम्मेदारियों से समझौता नहीं किया।

कुछ महीनों बाद कॉलेज में प्लेसमेंट की प्रक्रिया शुरू हुई। यह वही मौका था जिसका उसे वर्षों से इंतज़ार था। लेकिन प्रतिस्पर्धा बेहद कड़ी थी। इंटरव्यू में बैठे छात्रों को देखकर उसका आत्मविश्वास डगमगाने लगा। कुछ पल के लिए पुराने डर वापस आ गए—गरीब गाँव का लड़का, साधारण कपड़े, सीमित संसाधन। लेकिन फिर उसे अपने संघर्ष की याद आई। उसने खुद से कहा कि जो इंसान इतने हालात झेल सकता है, वह इंटरव्यू से क्यों डरे?

जब उसका नाम बुलाया गया, तो वह गहरी साँस लेकर अंदर गया। सवाल कठिन थे, लेकिन जवाब सच्चे और आत्मविश्वास से भरे हुए। उसने किताबों से ज़्यादा अपनी ज़िंदगी से सीखा हुआ बताया—मेहनत, अनुशासन और हार न मानने की आदत। इंटरव्यू लेने वाले उसके जवाबों से प्रभावित हुए। बाहर निकलते समय उसके चेहरे पर सुकून था, क्योंकि उसने अपना सर्वश्रेष्ठ दिया था।

कुछ दिन बाद परिणाम आया। रवि का चयन हो गया था। वह नौकरी किसी बड़े पैकेज की नहीं थी, लेकिन उसके लिए यह किसी सपने से कम नहीं थी। यह उसके संघर्ष की पहली बड़ी जीत थी। उसने तुरंत घर फोन किया। माँ रो पड़ी और पिता की आवाज़ में वर्षों बाद राहत थी। उस पल रवि ने महसूस किया कि उसकी मेहनत ने सिर्फ़ उसकी ज़िंदगी नहीं बदली, बल्कि पूरे परिवार को नई उम्मीद दी है।

लेकिन रवि जानता था कि यह अंत नहीं है, बल्कि एक नई शुरुआत है। उसने सीख लिया था कि हालात चाहे जैसे हों, अगर इंसान ईमानदारी और मेहनत से आगे बढ़े, तो रास्ते अपने आप खुलते जाते हैं। उसकी कहानी अभी अधूरी थी, लेकिन अब वह खुद पर भरोसा करना सीख चुका था।

नौकरी मिलने के बाद रवि की ज़िंदगी में धीरे-धीरे स्थिरता आने लगी। पहली तनख़्वाह जब उसके हाथ में आई, तो उसने सबसे पहले माँ के लिए एक साड़ी और पिता के लिए दवाइयाँ भेजीं। पैसे से ज़्यादा उसमें सम्मान और आत्मनिर्भरता की खुशबू थी। वर्षों बाद घर में आर्थिक तनाव कुछ कम हुआ था। पिता का इलाज ठीक से होने लगा और माँ के चेहरे पर सुकून लौट आया। यह देखकर रवि को महसूस हुआ कि उसकी मेहनत अब रंग ला रही है।

शहर में नौकरी के साथ रवि ने खुद को और निखारना शुरू किया। वह लगातार नई चीज़ें सीखता, अपनी कमियों पर काम करता और कभी भी अपने अतीत को नहीं भूलता। कई सहकर्मी उसकी सादगी और मेहनत से प्रभावित थे। जब भी कोई उसकी सफलता की तारीफ़ करता, वह मुस्कुरा कर कहता, “मैं यहाँ तक अकेले नहीं पहुँचा हूँ, मेरे पीछे मेरे परिवार और संघर्ष की ताकत है।” यह विनम्रता ही उसे दूसरों से अलग बनाती थी।

कुछ समय बाद रवि ने एक बड़ा फैसला लिया। उसने अपने गाँव के स्कूल की हालत सुधारने का बीड़ा उठाया। वह जानता था कि अगर सही समय पर उसे एक अच्छा शिक्षक और मार्गदर्शन न मिला होता, तो शायद वह भी वहीँ रुक जाता। उसने अपनी कमाई का एक हिस्सा गाँव के बच्चों की पढ़ाई के लिए देने का निश्चय किया। किताबें, यूनिफॉर्म और पढ़ने की बेहतर सुविधा—ये सब धीरे-धीरे गाँव के स्कूल तक पहुँचने लगे।

जब रवि गाँव लौटा, तो वही लोग जो कभी उसका मज़ाक उड़ाते थे, आज गर्व से उसकी कहानी दूसरों को सुनाते थे। बच्चे उसे देखकर प्रेरित होते थे। वह उनसे कहता, “मैं तुमसे कोई बड़ा सपना नहीं माँगता, बस इतना चाहता हूँ कि तुम खुद पर भरोसा करना सीखो।” उसकी बातें बच्चों के दिलों में उतर जाती थीं, क्योंकि वे एक ऐसे इंसान को देख रहे थे जिसने हालात को हराकर अपनी जगह बनाई थी।

रवि अब समझ चुका था कि सफलता सिर्फ़ पैसे या पद से नहीं मापी जाती, बल्कि इस बात से मापी जाती है कि आप कितनों की ज़िंदगी में उम्मीद जगा पाए। उसने अपने जीवन का मकसद सिर्फ़ आगे बढ़ना नहीं, बल्कि दूसरों को भी आगे बढ़ने का रास्ता दिखाना बना लिया था। हर बार जब कोई बच्चा उसे बताता कि वह भी पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहता है, तो रवि को अपने संघर्ष की सार्थकता महसूस होती थी।

वर्षों पहले जो लड़का खुले आसमान के नीचे लेटकर सपने देखा करता था, आज वह खुद कई सपनों की वजह बन चुका था। उसकी कहानी यह सिखाती है कि हालात चाहे कितने भी कठिन क्यों न हों, अगर इंसान ईमानदारी, धैर्य और निरंतर मेहनत से आगे बढ़े, तो कोई भी सपना असंभव नहीं होता। रास्ते मुश्किल हो सकते हैं, लेकिन मंज़िल हमेशा उन लोगों के लिए होती है जो हार मानना नहीं जानते।

रवि की ज़िंदगी हमें यही संदेश देती है—सपने देखो, संघर्ष से मत डरो, और कभी यह मत भूलो कि आज की मेहनत ही कल की पहचान बनती है।

 

https://amzn.in/d/ftAcUlD

 

 

Comments

Popular posts from this blog

शादी, शरारत और रसगुल्ले: सोनू–प्रीति का सफ़र

यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक (fictional) है।  सोनू, प्रीति और इसमें वर्णित सभी व्यक्ति, घटनाएँ, स्थान और परिस्थितियाँ कल्पना पर आधारित हैं ।  इसमें किसी वास्तविक व्यक्ति, परिवार या घटना से कोई संबंध नहीं है।  कहानी का उद्देश्य केवल मनोरंजन और रचनात्मकता है।  30 नवंबर की रात थी—भव्य सजावट, ढोल का धमाका, चूड़ियों की खनखनाहट और रिश्तेदारों की भीड़। यही थी सोनू के बड़े भाई की शादी। प्रीति अपनी मौसी के परिवार के साथ आई थी। दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे… अभी तक। 🌸 पहली मुलाक़ात – वरमाला के मंच पर वरमाला का शूम्बर शुरू हुआ था। दूल्हा-दुल्हन स्टेज पर खड़े थे, और सभी लोग उनके इर्द-गिर्द फोटो लेने में जुटे थे। सोनू फोटोग्राफर के पास खड़ा था। तभी एक लड़की उसके बगल में फ्रेम में आ गई—हल्का गुलाबी लहँगा, पोनीटेल, और क्यूट सी घबराहट। प्रीति। भीड़ में उसका दुपट्टा फूलों की वायर में फँस गया। सोनू ने तुरंत आगे बढ़कर दुपट्टा छुड़ा दिया। प्रीति ने धीमे, शर्माए-सजाए अंदाज़ में कहा— “थैंक यू… वरना मैं भी वरमाला के साथ स्टेज पर चढ़ जाती!” सोनू ने पहली बार किसी शादी में...

डिजिटल बाबा और चिकन बिरयानी का कनेक्शन

  गाँव के लोग हमेशा अपने पुराने रिवाज़ों और पारंपरिक जीवन में व्यस्त रहते थे। सुबह उठते ही हर कोई खेत में या मंदिर में निकल जाता, और मोबाइल का नाम सुनना भी दूर की बात थी। लेकिन एक दिन गाँव में कुछ अलग हुआ। सुबह-सुबह गाँव की चौपाल पर एक आदमी पहुँचा। वो साधारण दिखता था, लंबा कुर्ता और सफेद दाढ़ी, लेकिन उसके हाथ में मोबाइल और ईयरफोन थे। गाँव वाले धीरे-धीरे इकट्ठा हो गए। गोलू ने धीरे से पप्पू से कहा, “ये कौन है, बाबा या कोई नया टीचर?” पप्पू बोला, “देखो तो सही, वीडियो कॉल पर किसी से बात कर रहे हैं।” डिजिटल बाबा ने सभी को देखकर हाथ हिलाया और बोला, “नमस्ते बच्चों! मैं डिजिटल बाबा हूँ। मैं आपको जीवन के हर रहस्य की जानकारी ऐप्स और सोशल मीडिया से दूँगा!” गाँव वाले थोड़े चौंके। पंडितजी शर्मा ने फुसफुसाते हुए कहा, “मोबाइल वाले संत? ये तो नई बात है।” बाबा ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां पंडितजी, अब ज्ञान केवल मंदिर में नहीं मिलता, बल्कि इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब पर भी मिलता है।” गोलू और पप्पू तो बेसब्र हो गए। उन्होंने तुरंत अपने मोबाइल निकालकर बाबा का लाइव वीडियो रिकॉर्ड करना शुरू क...

“दीपों का गाँव” — एक प्रेरक ग्रामीण कथा

  अरावली की तलहटी में बसे किशनपुर गाँव का सूरज किसी और जगह से थोड़ा अलग उगता था। क्यों? क्योंकि इस गाँव के लोग मानते थे कि हर दिन की पहली किरण उम्मीद, प्रेम और मेहनत का संदेश लेकर आती है। पर यह मान्यता हर किसी की नहीं थी—कम-से-कम गाँव के एक हिस्से की तो बिल्कुल भी नहीं। किशनपुर के दो हिस्से थे— ऊपरवाड़ा और नीचेवाला मोहल्ला । ऊपरवाड़ा समृद्ध था, वहीं नीचेवाला मोहल्ला गरीब। इस आर्थिक और सामाजिक दूरी ने गाँव में कई कड़वाहटें भरी थीं। पर इन्हीं सबके बीच जन्मा था दीपक , एक 14 वर्षीय लड़का, जिसकी आँखों में चमक थी, और जिसका दिल गाँव से भी बड़ा था। दीपक नीचे वाले मोहल्ले का था। उसका पिता, हरिलाल, गाँव का एकमात्र मोची था। माँ खेतों में मजदूरी करती थी। गरीबी के बावजूद दीपक पढ़ना चाहता था। उसका सपना था—गाँव के बच्चों के लिए एक ऐसी जगह बनाना जहाँ हर बच्चा पढ़ सके। किशनपुर में एक ही स्कूल था— सरकारी प्राथमिक विद्यालय । छोटा सा, जर्जर कमरों वाला स्कूल। लेकिन बच्चों के सपने बड़े थे। समस्या यह थी कि ऊपरवाड़े के लोग चाहते थे कि उनके बच्चे अलग बैठें। वे गरीब बच्चों के साथ पढ़ाना पसंद नहीं करत...